उड़ने की चाहत
बन घुघुती जीना चाहा,
आज बन गयी पिंजरे की चिड़िया ,
पंख फैला गगन में उड़ना चाहा,
पर पंख हिलाना भूल गयी।
चाहा था आकाश में उड़ना
पर धरा की धूल बन गयी,
सोने के पिंजरे में रह कर
चांदी के दाने आहार मान गयी।
इतने वर्ष कैद में रहकर
जब मैंने फिर उड़ना चाहा,
रत्नजड़ित पंख ये मेरे
अब तो उड़ना भूल गये।
टकटकी लगाये मेरी आँखें
हर समय तकती रहती नभ को,
शायद आए मेरा पक्षी साथी
और सिखाए फिर से उड़ना।
आखिर एक साँझ
जब सारा आकाश,
चमक रहा था
सूरज कीअंतिम किरणों से।
मैंने देखा इक पक्षी
दूर गगन में मंडराता,
मेरी ही चाहत में वह
लगता था उड़ता जाता।
उसकी आँखों का केन्द्र थी मैं
उसकी चाहत का अंत थी मैं,
सोचा अब तो वह आयेगा
उड़ना फिर से मुझे सिखायेगा।
उड़ निकलूँगी उसके साथ
फिर उड़ान के सपने होंगे,
फिर गगन चूमूँगी उसके साथ
दूर उँचाइयों में हम वह होंगे।
सोचा पंछी ही जानेगा
इक दूजे पंछी का दुख,
फिर से मेरा मन जानेगा
इक साथी संग उड़ने का सुख।
देखा वह मुझे तकता
आ रहा है मेरी ओर,
मेरे इस बन्दी हृदय में
हो रहा था धड़कनों का शोर।
सोचा फिर से मैं चहकूँगी
गाऊँगी मैं गीत हजार,
सोचा फिर से मैं महकूँगी
उड़ गगन में बारम्बार।
फिर से खाऊँगी फल काफल का
फिर से पीऊँगी जल स्रोतों का,
देवदार की ऊँची डाली
नीचे होगी हरियाली।
चुन चुन नीड़ बनाऊँगी
चीड़ के कोमल पत्तों का,
झूम झूम जाऊँगी
सुन निनाद झरनों का।
कैसी तृप्ति देगी
हिमालय की शीतल बयार,
दूर तक दृष्टि देखेगी
पहाड़ी पुष्पों की बहार।
इन सपनों में खोई थी मैं
जागी आँखों सोई थी मैं,
इतने में वह आया
जो था मेरे मन भाया।
खुला हुआ था पिंजरा मेरा
बाहर मैं निकल आई,
पंखों की बाँहें
मैंने थीं फैलाईं।
उसको देख यूँ लगा
कबसे ढूँढ रहा वह मुझको,
उसके जीवन का उद्देश्य ही
इक दिन था पा लेना मुझको।
जाने कबसे घुटी आवाज
जैसे मैंने फिर से पाई,
पाकर उसको अपने आगे
इक बार मैं चहचाई।
आँखों से मिली आँखें
मैं आगे बढ़ती आई,
मन मैं हुई गुदगुदी
चोंच चोंच से टकराई।
पर यह क्या?
पंजे उसके मुझे पकड़ रहे थे
बन्धन उसके मुझको जकड रहे थे,
उसकी खूनी आँखों में मैने देखा काल
भय से मन था मेरा बेहाल।
फिर से देखा मैने उसको
फिर जाना यह राज,
मुक्ति जाना था मैने जिसको
वह तो निकला इक शाहबाज।
हाय विधि की विडम्बना
थी कितनी क्रूर,
देखे मैने थे जो सपने
हो गये सब चूर।
आखिर ले उड़ा वह
मुझे दूर गगन मे,
सहमी हुइ थी मैं
फिर भी मुसकाई मैं मन में।
माना यह था मेरा अंत
माना यह थी मेरी अन्तिम उड़ान,
किन्तु फिर से थी मैं गगन मे
पूरा हुआ था उड़ने का अरमान।
कल थी मैं पिंजरे की बन्दी
आज ना बन्दी कहलाऊँगी,
कल थी मैं धरा की कैदी
आज गगन में मर जाऊँगी।
यह थी मेरी अन्तिम यात्रा
यह थी मेरी अन्तिम उड़ान,
उड़ने की चाहत में मैंने
दे दिया था अपना जीवनदान।
अब ना था मेरा मन घबराता
अब ना था आतुर मन बेहाल,
बंद कर ली मैंने आँखे अपनी
देख अन्तिम बार सूरज लाल।
धन्यवाद ओ मेरे भक्षक
धन्यवाद ओ शाहबाज,
मुक्ति की चिर चाहत
जो तूने पूरी कर दी आज ।
घुघूती बासूती
Tuesday, September 25, 2007
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वाह आपने हमारी सुन ही ली और चिट्ठा शुरु कर ही दिया। बधाई ! आप भी ब्लॉगियाने लगीं। :)
ReplyDeleteपरिचर्चा पर आपकी जो कविताएं हैं उन्हें भी यहाँ ले आइए, वहाँ सभी ने नहीं पढ़ी अभी।
नारदमुनि का आशीर्वाद लेना न भूलिए, इसके बिना चिट्ठाजगत में गति नहीं। इस पते पर उन्हें ईपत्र द्वारा चिट्ठे का नाम पता दे दीजिए। फिर अपने चिट्ठे पर एक आवकजावक सूचक यंत्र यहाँ से लगाइए और बस मीटर पर बढ़ते नंबरों का मजा लीजिए।
एक बात और आप ब्लॉगर पर २००५ से रजिस्टर हैं, लेकिन लिखा कुछ नहीं। इतना वक्त लगा दिया फैसला करने में ? यह चिट्ठा पुराने ब्लॉगर पर है। चिट्ठे पर कुछ भी संशोधन से पहले एक काम करिए कि नए ब्लॉगर पर शिफ्ट हो जाइए। नए ब्लॉगर पर बहुत सी नईं फीचर्स हैं। इसके लिए आपके पास जीमेल का अकाऊंट होगा ही। न हो तो बताइगा।
बधाई आपको अपना चिट्ठा शुरु करने की। आपकी मनोकामना पूरी हो:-
ReplyDeleteउड़ निकलूँगी उसके साथ
फिर उड़ान के सपने होंगे,
फिर गगन चूमूँगी उसके साथ
दूर उँचाइयों में हम वह होंगे।
badhai, nirantar likhati rahe. :)
ReplyDeleteसही कहा, आपने श्रीश। घुघुतीबासूती को पिछले एक वर्ष से हिन्दी में चिट्ठा शुरू करने के लिए मैं भी कहता रहा हूँ।
ReplyDeleteकुछ कारणों से परिचर्चा पर जाना कम ही हो पाता है, इसलिए आपकी कविताओं का पूरा आस्वादन नहीं मिल पाता। अपनी कविताओं को आप इस चिट्ठे पर ले आएँ तो बेहतर रहेगा। साथ ही अपनी रूचि के समसामयिक विषयों पर आप गद्य में भी लिखें। आपके भीतर महान लेखिका और कवयित्री के संस्कार और बीजांकुर हैं। उन्हें आप बाहर निकालें और हिन्दी साहित्य को समृद्ध करें।
मैत्रेयी पुष्पा भी प्रौढ़ावस्था में आकर साहित्य के मैदान में कूदीं थीं और आज वह हिन्दी की सर्वाधिक लोकप्रिय महिला साहित्यकार हैं।
चिट्ठाजगत में आपका स्वागत है.
ReplyDeleteYes Neha and thanks. My thanks to Manjit too. I am sure I am going to trouble him again very soon with new problems as they crop up. :)
ReplyDeleteधन्यवाद श्रीश जी,अनूप जी, प्रमेन्द्र जी,सृजन जी व संजय जी । नारदमुनि का आशीर्वाद लेना तो चाहती हूँ पर शायद वे आजकल आशीर्वाद नहीं दे रहे हैं । आपके बताए अनुसार उनसे निवेदन अवश्य करूँगी ।
ReplyDeleteश्रीश जी, हाँ, अंग्रेजी में चिट्ठा बहुत पहले ही लिखने की सोच रही थी किन्तु अचानक हिन्दी की ऐसी धुन लगी कि अंग्रेजी में लिखी कुछ कविताएँ यूँ ही पड़ी रहीं । मैं यह समझती रही कि हिन्दी के लिए नया चिट्ठा बनाना पड़ेगा । यह पता नहीं था कि अपने पुराने वाले के अन्तर्गत हिन्दी का भी बना सकती हूँ ।
सृजन जी ,यत्न करूँगी कि गद्य भी लिखूँ । एक दो प्रयासों को यदि आप उचित समझें तो आपको मेल कर दूँगी और यदि आप सोचें कि वे यहाँ डालने योग्य हैं तो फिर डाल दूँगी । मैं केवल पढ़ने भर का निवेदन करूँगी उससे अधिक नहीं ।
मेरा यूँ उत्साह बढ़ाने के लिए एक बार फिर आप सब का धन्यवाद ।
घुघूती बासूती
हिन्दी चिट्ठे जगत में स्वागत है।
ReplyDeleteधन्यवाद उन्मुक्त जी ।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
चिट्ठाजगत में आपका स्वागत है घुघूती बासूती जी
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteIt's lovely to experiment like Ghughuti Basuti, pioneered Chhayavaad and revolutionary due to its unconventional nature. She voiced her protest against exploitation through her verses.
ReplyDeleteकुछ लोग उससे कतरा कर
दूर से गुजर रहें हैं।
ki kabhi kabhi manavon ka tandav dekh wo " ghughuti" bhi roti hai..
uske swar rudn hain, Haaye manav tu samajh ab ..uska gaana kitne logon ki pran lahari hai .
aap ne badhiyan likha hai .bas likhate rahiye ..aur
jaise mayur nachte hain badal ko dekhkar hum in kavitayon ko dekh nayi varsha ko abhilashit , manmohini nritya sansar mein kho se jayenge ; Basuti aur likho .
Nirala ki kavita aaj jeevant si jaan padti hai ..
Himmat karne waalo ki kabhi haar nahi hoti:)
स्वागत है चिट्ठा जगत में।
ReplyDeleteधन्यवाद अभिजीत जी व अतुल जी ।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
ghughutibasuti.blogspot.com
miredmiragemusings.blogspot.com/
कविता तो अच्छी लगी, पर उत्तरार्ध वेदनात्मक प्रसन्नता लिये हुए!
ReplyDeleteअरे दीदी भाई को छुट्टियो से वापस आकर पत्र लिखुगी कहा था और भूल गई यह वही कविता है जो परिचर्चा मे आपकी कविता के सन्दर्भ मे लिखि थी आपने इसका एक अंश वहा भी पढा था धन्यवाद होसला अफ़जाई के लिये पर पत्रोतर जरुर लिख दे जवाब के इन्त्जार मे आपका छोटा भाई अरुण
ReplyDeleteमैं तो कुछ समझ ही नहीं पा रहा??? किस बात का स्वागत समारोह चल रहा है. यह कोई नई घुघुतीबासूती जी हैं क्या?? कि वही वाली जो हमेशा से लिखती आईं है...कोई मुझे बताये, आखिर हो क्या रहा है?
ReplyDeleteहाँ मैं भी ससमीरजी की तरह कुछ असमंजस में हूँ.
ReplyDeleteउड़ने की चाहत कविता में सचमुच गहराई है बहुत अच्छी कविता के लिए दिल से बधाईयाँ.../
ReplyDeleteकविता बहुत अच्छी है पर कल से यह सब टिप्पणियां देख कर मै भी चकराया हुआ हूं।
ReplyDeleteकुछ भेजे में आ ही नही रहा कि यह हो क्या रहा है!
चकराने वालों में मेरा नाम भी है
ReplyDeleteयह क्या हो रहा है उड़ते उड़ाते कहाँ आ गए हम :)
ReplyDeleteवैसे कविता बहुत ही सुंदर लगी बहुत ही प्यारी
बधाई आपको :)
कल थी मैं धरा की कैदी
ReplyDeleteआज गगन में मर जाऊँगी। ----शब्द मौन हो गए... मूक हुई मैं... आस जगी , इक सपना जागा .... कल मैं भी धरा से उठ गगन की बाँहों में मर मोक्ष पाऊँगी.....परम आनन्द पा जाऊँगी !!!!
भावों से भरी रचना को बार बार पढ़ने का आनन्द आ रहा है....!
यह तो घुघूती जी बड़ा धमाकेदार ,उड़ाकेदार पदार्पण था आपका ब्लॉग जगत में -कविता क्या है विडम्बनाओं की आत्मकथा कहिये !
ReplyDeleteParaphrase please
ReplyDeleteलाजवाब रचना!
ReplyDeleteबच रहा था आप सबसे, कल तलक सहमा हुआ
अब बड़ा महफूज़ हूँ मैं, कब्र में आने के बाद
मौत का अब डर भी यारों, हो गया काफूर है
ज़िंदगी की बात ही क्या, ज़िंदगी जाने के बाद
पहली बार आया इस ब्लॉग पर. अनकहे को अभिव्यक्त किया अपने.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर. सात साल पहले आप की उड़ान अपेक्षाकृत ऊंची थी
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