दिल्ली में उच्च न्यायालय के बाहर हुए विस्फोट ने न जाने कितने विस्फोटों व मृत्युओं की याद ताजा कर दी। अभी सोमवार को ही हिन्दुस्तान टाइम्स में देखी सबसे बड़े आतंकी हमले से सम्बन्धित एक फोटो व उसके साथ के लेख की भी याद दिला दी।
जब मैंने उस लेख को पढ़ा था व फोटो को देखा था तब भी मेरे मन में यही विचार उठा था कि हम कितनी सरलता से सबको अपने अनुसार नाप तोल लेते हैं व उनके विषय में एक धारणा बना लेते हैं। हम यह सोचकर चलते हैं कि ऐसी स्थिति में मेरी क्या प्रतिक्रिया होती और सोचते हें कि सबकी वही प्रतिक्रिया होनी चाहिए और यदि अलग है तो गलत है।
आप भी यह फोटो देखिए। लिंक में पहली फोटो देखकर लगता है जैसे ये पाँच युवा अपने पीछे हो रहे मृत्यु व विनाश के ताण्डव से बेखबर बतिया रहे हैं। पहली नजर में हम चौंक जाते हैं और शायद आज के जमाने व निष्ठुरता को कोस लेते हैं। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। मैंने जानबूझकर लेख पढ़ा नहीं और सोचने लगी। याद करने लगी जीवन के वे सारे दुखद क्षण जब किसी न किसी प्रिय को खोया था।
क्या मैं रोई थी? नहीं। क्या किया था? मैं काम में लग गई थी। कभी खाना बनाने में तो कभी खाना खिलाने में, तो कभी पचासों प्लेट आदि को धोने में। सबका ध्यान रखने में। हर रोने वाले के आँसू पोछने में।
न जाने ये युवा कैसे अपनी नजरें पीछे से उठते धुँए से हटा पाए होंगे। क्या तब उन्हें विनाश के परिमाण का अनुमान रहा होगा? क्या उनका मन मस्तिष्क उस दृष्य को सह पा रहा होगा? क्या वे किसी हल्की बात, ओछे मजाक, या किसी किस्से के पीछे छिपने का यत्न तो नहीं कर रहे थे?
पता नहीं। उनमें से एक ने तो अपनी सफाई दी भी। उसने कहा कि वह व उसकी मित्र सदमे व अविश्वास की स्थिति में थे। उसे तो लगता है कि फोटोग्राफर थॉमस हॉपकर ने उनकी अनुमति के बिना यह फोटो लेकर गलत किया। उनकी उस समय की अनुभूतियों व व्यवहार को गलत तरीके से प्रस्तुत किया।
कहा जा सकता है कि फोटो झूठ नहीं बोलती। याद कीजिए जब किसी प्रिय की मृत्यु हुई थी तो क्या हम कभी किसी बात पर मुस्कराए नहीं थे? क्या हम कुछ पल को सबकुछ भूल जाना नहीं चाहते थे?
मुझे याद आ रही है हमारे एक मित्र की अचानक हुई, सच में खड़े खड़े हुई, मृत्यु की। लगभग चालीस साल के बेटे को खोने वाले उसके बाबू जी के पैर लड़खड़ा रहे थे। मुझे उनसे सहानुभूति हो रही थी। उसके बाबू जी को सहारा दे रही थी। किसी ने बताया कि बाबूजी के पैर तरल पदार्थ के सेवन के कारण लड़खड़ा रहे थे। हो सकता है। शायद उसके बाबूजी स्थिति से निपटने को यही सहारा ढूँढ पाए। कोई भगवान का सहारा लेता है, उन्होंने शायद बोतल का सहारा लिया। अपनी अपनी आवश्यकता, अपनी अपनी श्रद्धा है।
ऐसे ही मेरे एक जान पहचान के परिवार में जब युवा पुत्र की विदेश में मृत्यु हुई तो उसकी माँ सीढ़ी लगाकर अपने घर की दीवारें धोने में लग गईं। लोग अफसोस करने आ रहे थे और वे सफाई, धुलाई में व्यस्त थीं। उन्हें लोगों का आना अपने काम में खलल लग रहा था व वे मेरे बार बार उन्हें सीढ़ी से उतर लोगों से मिलने आने को कहने पर खीझ रही थीं।
पहले दिए लिंक में ही चौथा चित्र एक हाथ का है। सोचिए, उस हाथ के मालिक ने शायद कल परसों या उस सुबह ही मैनिक्योर करवाया हो! उसे क्या जरा भी अनुमान हुआ होगा कि उसका व उसके हाथ का बस इतना ही साथ है। जिसे देख, हम व्याकुल हो जाते हैं, मन विचलित हो जाता है, उसे ही देख उस दृष्य के रचयिता, 'श्री बॉम्बर' कहते होंगे, 'काम सही हो गया', 'ए जॉब वेल डन' कहकर अपने को शाबासी देते होंगे। उसके आका शायद उसकी पदोन्नति कर देते होंगे। यहाँ किसी की चिता की आँच उसके घर के चूल्हे की आँच थोड़ी और तेज कर देती होगी।
घुघूती बासूती
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Thursday, September 08, 2011
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