बात सन १९८० की है। हम तब मुम्बई में गोरेगाँव में नए नए रहने आए थे। बचपन सीमेन्ट कारखानों की बस्तियों में गुजरा था। शहर के नाम पर चन्डीगढ़ में हॉस्टल में रही थी। कुछ समय पुणे में छुट्टियों के समय बिताया था। कभी छुटटियों में पहाड़ जाते थे। विवाह के बाद दिल्ली गई जरूर किन्तु घर से बाहर कम ही निकली। विवाह के बाद भी एक वैसी ही सीमेन्ट कारखाने की बस्ती में रही थी। शहरों की भीड़भाड़ और कठिनाइयों से लगभग अनजान थी। चोरी, जेबकतरी से न कभी पाला पड़ा था न सावधान रहना ही सीखा था।
पति का दफ्तर चर्चगेट स्टेशन के ठीक सामने था। एक दिन सोचा कि पति के साथ बिटिया के लिए कुछ खरीददारी की जाए। प्रायः जब तक वे घर लौटते दुकानें बन्द हो चुकी होती थीं। सो निर्णय हुआ कि मैं ही शाम को बिटिया के साथ उनके दफ्तर पहुँच जाऊँ और फिर हम साथ खरीददारी को निकल जाएँ।
मुम्बई की पहली लोकल ट्रेन यात्रा करने के लिेए मैं गोद में बिटिया को उठाए और दूसरे कन्धे पर पर्स लटकाए गोरेगाँव स्टेशन पहुँच गई। टिकट खरीदा और लोकल ट्रेन आने पर महिला कम्पार्टमेंट में बैठ गई। बैठते से ही बिटिया को कुछ देने को पर्स खोला तो उसके अन्दर रखा मेरा वॉलेट गायब था। टिकट भी उस ही में रखा था और पैसे भी। जेबकतरे जी ने वॉलेट निकाल कर मेरा पर्स बन्द करने का कष्ट भी किया था। मेरे चेहरे का उड़ा रंग देख एक छात्रा ने पूछा कि क्या हुआ। मैंने उसे वॉलेट गायब होने के बारे में बताया। वह मुस्करा कर बोली, 'निश्चिन्त रहिए। मैं चर्नी रोड पर उतर रही हूँ। आपको वहाँ से चर्चगेट का टिकट खरीदकर दे दूँगी।' चर्नी रोड चर्चगेट से एक स्टेशन ही पहले है।
पर्स की एक जेब में मुझे एक 'दो रुपए का नोट' मिल गया। उसे देखकर मुझे जितनी खुशी हुई वह आज कभी हजार के नोट को देखकर भी नहीं हो सकती। मैंने उसे कहा कि मेरे पास 'दो रुपए का नोट' है। वह बोली कि 'आप टिकट नहीं खरीद सकेंगी। खरीदने के लिए बाहर निकलेंगी तो टिकट चेकर पकड़ सकता है। मैं ही खरीदकर आपको दे दूँगी।'
खरीददारी का तो सारा मूड उखड़ चुका था। अब तो बस किसी तरह पति के दफ्तर पहुँचना ही उद्देश्य रह गया था। मन ही मन यह मनाते कि कोई टिकट चेकर ना आ जाए, मैं सोचती रही कि यदि आया तो यह कहने पर कि वॉलेट चोरी हो गया वह मेरी बात मानेगा थोड़े ही। हर बिना टिकट यात्री यही तो कहता होगा। खैर, टिकट चेकर नहीं आया और किसी तरह चर्नी रोड स्टेशन आ ही गया।
हम ट्रेन से उतरे। वह मुझे वहीं प्लैटफॉर्म पर छोड़ वहीं रुकने को कह टिकट लेने जाने लगी तो मैंने बड़ी कातरता से अपना वह इकलौता 'दो रुपए का नोट' आगे बढ़ा दिया। मन में यह संशय भी था कि यह मुम्बई है। कहीं यह आखिरी पूँजी भी लेकर वह गायब हो गई तो क्या होगा। वह हँसने लगी और बोली,' पहले मैं टिकट लाती हूँ, आप पैसे बाद में देना।' थोड़ी देर में वह टिकट लेकर आ गई और उसने मुझसे पैसे लेने से मना कर दिया। बोली, 'अपने पास रखिए कहीं पति दफ्तर में नहीं मिले तो फोन करके किसी को बुलाने के काम आएगा।'
मैं पति के दफ्तर पहुँची और बिना खरीददारी किए हम घर लौट आए। खरीददारी कैसे करते? सारे पैसे तो जेबकतरे की जेब में चले गए थे। वह क्रेडिट कार्ड, ए टी एम, मोबाइल फोन के युग से बहुत पहले का युग जो था।
बाद में दो बार और जेब, नहीं, पर्स कटा, एक बार फिर मुम्बई में और एक बार दिल्ली में। किन्तु तब तक 'सारे अन्डे एक ही टोकरी में रखने' की आदत छूट चुकी थी। कुछ जेब में या जेब नहीं हुई तो एक कपड़े की छोटी सी थैली में रख कपड़ों में पिन करना सीख लिया था। यह सिलसिला तब तक चला जब तक हर एअरपोर्ट, स्टेशन, मॉल आदि में तलाशी का सिलसिला शुरू नहीं हुआ। उस बात को इतने साल बीत गए हैं किन्तु उस भली छात्रा की मुस्कान कभी नहीं भुला सकती।
आज भी जब कोई व्यक्ति ट्रेन में पर्स चोरी हो जाने, सामान चोरी हो जाने या जेब कट जाने की बात कहता है तो लोगों के रोकने पर भी कुछ तो सहायता कर ही देती हूँ ताकि वह घर तक तो पहुँच जाए या घर से किसी को सहायता के लिए बुला सके। क्या पता मेरी तरह वह सच ही बोल रहा हो।
घुघूती बासूती
पति का दफ्तर चर्चगेट स्टेशन के ठीक सामने था। एक दिन सोचा कि पति के साथ बिटिया के लिए कुछ खरीददारी की जाए। प्रायः जब तक वे घर लौटते दुकानें बन्द हो चुकी होती थीं। सो निर्णय हुआ कि मैं ही शाम को बिटिया के साथ उनके दफ्तर पहुँच जाऊँ और फिर हम साथ खरीददारी को निकल जाएँ।
मुम्बई की पहली लोकल ट्रेन यात्रा करने के लिेए मैं गोद में बिटिया को उठाए और दूसरे कन्धे पर पर्स लटकाए गोरेगाँव स्टेशन पहुँच गई। टिकट खरीदा और लोकल ट्रेन आने पर महिला कम्पार्टमेंट में बैठ गई। बैठते से ही बिटिया को कुछ देने को पर्स खोला तो उसके अन्दर रखा मेरा वॉलेट गायब था। टिकट भी उस ही में रखा था और पैसे भी। जेबकतरे जी ने वॉलेट निकाल कर मेरा पर्स बन्द करने का कष्ट भी किया था। मेरे चेहरे का उड़ा रंग देख एक छात्रा ने पूछा कि क्या हुआ। मैंने उसे वॉलेट गायब होने के बारे में बताया। वह मुस्करा कर बोली, 'निश्चिन्त रहिए। मैं चर्नी रोड पर उतर रही हूँ। आपको वहाँ से चर्चगेट का टिकट खरीदकर दे दूँगी।' चर्नी रोड चर्चगेट से एक स्टेशन ही पहले है।
पर्स की एक जेब में मुझे एक 'दो रुपए का नोट' मिल गया। उसे देखकर मुझे जितनी खुशी हुई वह आज कभी हजार के नोट को देखकर भी नहीं हो सकती। मैंने उसे कहा कि मेरे पास 'दो रुपए का नोट' है। वह बोली कि 'आप टिकट नहीं खरीद सकेंगी। खरीदने के लिए बाहर निकलेंगी तो टिकट चेकर पकड़ सकता है। मैं ही खरीदकर आपको दे दूँगी।'
खरीददारी का तो सारा मूड उखड़ चुका था। अब तो बस किसी तरह पति के दफ्तर पहुँचना ही उद्देश्य रह गया था। मन ही मन यह मनाते कि कोई टिकट चेकर ना आ जाए, मैं सोचती रही कि यदि आया तो यह कहने पर कि वॉलेट चोरी हो गया वह मेरी बात मानेगा थोड़े ही। हर बिना टिकट यात्री यही तो कहता होगा। खैर, टिकट चेकर नहीं आया और किसी तरह चर्नी रोड स्टेशन आ ही गया।
हम ट्रेन से उतरे। वह मुझे वहीं प्लैटफॉर्म पर छोड़ वहीं रुकने को कह टिकट लेने जाने लगी तो मैंने बड़ी कातरता से अपना वह इकलौता 'दो रुपए का नोट' आगे बढ़ा दिया। मन में यह संशय भी था कि यह मुम्बई है। कहीं यह आखिरी पूँजी भी लेकर वह गायब हो गई तो क्या होगा। वह हँसने लगी और बोली,' पहले मैं टिकट लाती हूँ, आप पैसे बाद में देना।' थोड़ी देर में वह टिकट लेकर आ गई और उसने मुझसे पैसे लेने से मना कर दिया। बोली, 'अपने पास रखिए कहीं पति दफ्तर में नहीं मिले तो फोन करके किसी को बुलाने के काम आएगा।'
मैं पति के दफ्तर पहुँची और बिना खरीददारी किए हम घर लौट आए। खरीददारी कैसे करते? सारे पैसे तो जेबकतरे की जेब में चले गए थे। वह क्रेडिट कार्ड, ए टी एम, मोबाइल फोन के युग से बहुत पहले का युग जो था।
बाद में दो बार और जेब, नहीं, पर्स कटा, एक बार फिर मुम्बई में और एक बार दिल्ली में। किन्तु तब तक 'सारे अन्डे एक ही टोकरी में रखने' की आदत छूट चुकी थी। कुछ जेब में या जेब नहीं हुई तो एक कपड़े की छोटी सी थैली में रख कपड़ों में पिन करना सीख लिया था। यह सिलसिला तब तक चला जब तक हर एअरपोर्ट, स्टेशन, मॉल आदि में तलाशी का सिलसिला शुरू नहीं हुआ। उस बात को इतने साल बीत गए हैं किन्तु उस भली छात्रा की मुस्कान कभी नहीं भुला सकती।
आज भी जब कोई व्यक्ति ट्रेन में पर्स चोरी हो जाने, सामान चोरी हो जाने या जेब कट जाने की बात कहता है तो लोगों के रोकने पर भी कुछ तो सहायता कर ही देती हूँ ताकि वह घर तक तो पहुँच जाए या घर से किसी को सहायता के लिए बुला सके। क्या पता मेरी तरह वह सच ही बोल रहा हो।
घुघूती बासूती
जेब टी कटी. पर बदले में मिली जिंदगी की यादगार सौगात....
ReplyDeleteकितना कुछ याद दिला दिया आपने। आपका सच दिल तक पहुँच गया।
ReplyDeleteकितना कुछ याद दिला दिया आपने। आपका सच दिल तक पहुँच गया।
ReplyDeleteकितना कुछ याद दिला दिया आपने। आपका सच दिल तक पहुँच गया।
ReplyDeleteजिबदगी की एक सीख।काफी अच्छा लगा पढ़ कर,इंसानियत अभी जिन्दा है और उसी छात्रा जैसे लोग इसे मारने नहीं देते।
ReplyDeleteपढ़कर भला लगा। दो तीन घटनाएँ याद आ गईं। सचेत भी रहना चाहिए और यथासंभव सहायता भी करनी ही चाहिए। लेकिन सहायता करने वालों की सोच वेषभूषा, और प्रकटन पर भी निर्भर करती है।
ReplyDeleteअनुभव हमें विश्वास और अविश्वास के बीच झूलते भी सहृदयता के प्रति यकीन बनाये रखते हैं!!
ReplyDeleteभले लोग हर जगह मिल जाते हैं। पर अब समय बहुत तेजी से बदल रहा है। जेबकतरे भी लुटे हुये से दिखते हैं और फिर एक बार लूटने की कोशिश में लग जाते हैं। बस उनके लूटने का अंदाज बदल गया रहता है।
ReplyDeleteअच्छा लगा। अपने खुद के अनुभव याद आ गये।
ReplyDeleteभले लोगों के कारण ही दुनिया रहने लायक बनी हुई है .
ReplyDeleteवो एटीएम मोबाइल का जमाना नही था पर विश्वास का जमाना था ।अच्छा लगा पढ़ कर।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (19-09-2015) को " माँ बाप बुढापे में बोझ क्यों?" (चर्चा अंक-2103) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत भावुक संस्मरण।
ReplyDeleteदुनिया में भले लोग बहुत हैं बस कुछ ने उन्हें सोचने पर मजबूर कर रखा है
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, आयकर और एनआरआई ... ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteसुन्दर चित्रण
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लिखा है.
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ReplyDeleteआज के दौर में भी मुसीबत की घडी में जब कोई अच्छा इंसान मिलता है तो वह कई मौको पर याद आता रहता है।
ReplyDelete...बहुत बढ़िया प्रेरक प्रस्तुति
बहुत सुंदर
ReplyDeleteGreat
ReplyDeleteमेरे साथ दिल्ली में हुआ था। रेलवे स्टेशन पर किसी ने इसी प्रकार पर्स से वोलेट निकल लिया था। पुलिस ने बहुत मुश्किल से FIR लिखी थी। ऐसा लग रहा था जैॅसे मैं ही कसूरवार हूँ। लेकिन ऐसी घटनायें आगे के लिए सावधान भी कर देती हैं।
ReplyDeleteआप के ब्लॉग की जितनी भी तारीफ की जाए कम है आज पेपर में आपके आर्टिकल को देखा में मुझे बहुत अच्छा लगा मैं भी अपने ब्लॉग पर काम रहा है हु जो की मनोरंजन से सम्बंधित है शायद आपको पसंद आये http://guruofmovie.blogspot.in
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा आपका सहज वर्णन !
ReplyDeleteBeautiful collection you have. If you are looking for world most beautiful collection then join us on http://guruofmovie.com
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर पोस्ट। वह वक्त और था, एक वक्त आज है। दोनों में से बेहतर कौन सा है। नहीं पता।
ReplyDeleteSudheer Yadav has left a new comment on your post "'दो रुपए का नोट'":
ReplyDeleteआप के ब्लॉग की जितनी भी तारीफ की जाए कम है आज पेपर में आपके आर्टिकल को देखा में मुझे बहुत अच्छा लगा मैं भी अपने ब्लॉग पर काम रहा है हु जो की मनोरंजन से सम्बंधित है शायद आपको पसंद आये http://guruofmovie.blogspot.in
सॉरी,यह स्पैम में चला गया था .
Anil Prasad has left a new comment on your post "'दो रुपए का नोट'":
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा आपका सहज वर्णन !
सॉरी,यह स्पैम में चला गया था .
जमशेद आज़मी has left a new comment on your post "'दो रुपए का नोट'":
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर पोस्ट। वह वक्त और था, एक वक्त आज है। दोनों में से बेहतर कौन सा है। नहीं पता।
Posted by जमशेद आज़मी to घुघूतीबासूती at 8:54 a.m.
जमशेद आज़मी has left a new comment on your post "'दो रुपए का नोट'":
बहुत ही सुंदर पोस्ट। वह वक्त और था, एक वक्त आज है। दोनों में से बेहतर कौन सा है। नहीं पता।
Posted by जमशेद आज़मी to घुघूतीबासूती at 8:54 a.m.
Sudheer Yadav has left a new comment on your post "'दो रुपए का नोट'":
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सॉरी,यह स्पैम में चला गया था .
नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं!
ReplyDeleteI HELPED A PERSON 22 OR 3 DAYS AGO. HE WANT ONLY 20 RS. AND HE TOLD HIS PROBLEM TO MY FRIEND AND I GAVE HIM MONEY.BUT AN ANOTHER PERSON WHO WAS WITH US. HE TOLD THAT HE"LL SURELY GO FOR DRINK. BUT REFUSE THIS THOUGHT.
ReplyDeleteI BELIEVE TO HELP OTHERS IS MY HABIT. SO WHY SHOULD I NOT DO THIS. WHAT PPL DO. AND THOUGHT THATS NOT MATTER. AND AFETR READING YOUR BLOG. I FEEL GOOD. IF HE SURELY NEED THAT 20 RS. THEN HOW CAN I FORGIVE MYSELF.