७० के दशक का गीत 'सजना है मुझे सजना के लिए' मेरे मस्तिष्क में वह बराबरी वाला जो कोना बचपन से है उसे उकसाता सा लगता था। समझ नहीं आता था कि यदि स्त्री सजना के लिए सजती हैं तो क्या पुरुष सजनी के लिए? यह बात और है कि तब पुरुष सजते ही कहाँ थे? यदि एक कमीज लटकाना और एक पैंट पहन लेना सजना था तो वे अवश्य सजते थे। कोई कोई शौकीन बढ़िया बेल्ट व चमकते जूते का भी ध्यान रख लेते थे। कुछ लोग तो नित्य शेव भी कर लेते थे। पहनने वाले तो टाई भी पहन लेते थे। किन्तु वह कभी भी सजनी के लिए नहीं पहनी जाती थी। सजनी रहती थी घर में और सजना चमकते हुए घर से बाहर। घर आते ही टाई बेल्ट उतार लुँगीधारी या पजामाधारी बन जाते।
मेरी एक सहेली की माँ सुबह से सलवार कुर्ते में घर के काम में लग जातीं। सबके उठने से पहले पटक पटक कपड़े धोतीं। स्वाभाविक है कि अपनी अपनी श्रद्धा या कहिए श्रवण सामर्थ्य के अनुसार अपने अपने कान मलते परिवार के सारे सदस्य एक के बाद एक उठ जाते। अलार्म घड़ी वालों के भाग्य से हर स्त्री ऐसा नहीं करती थी अन्यथा उनका दिवाला निकल जाता। फिर वे सबको चाय नाश्ता करा स्कूल, कॉलेज, या दफ्तर भेजतीं। घर की जमकर सफाई करतीं, खाना बनाती आदि आदि। पति के घर लौटकर आने से पहले वे स्नान कर, साड़ी पहन, जूड़ा बना, लिपस्टिक बिन्दी आदि लगाकर तैयार हो जातीं। मैं उनसे बहुत प्रभावित होती। सोचती यह गीत, सजना है वाला, उन्हीं के लिए लिखा गया होगा।
किन्तु सहेली के पिता बिल्कुल विपरीत करते। वे सुबह उठते और जो थोड़ा बहुत सजना होता सजते और दफ्तर चले जाते। वापिस आकर पजामाधारी बन जाते। आँटी अवश्य सोने जाने तक सजी रहतीं। पुरुष के मामले में लगभग हर घर की यही कहानी आज भी है। कुछ शॉर्ट्सधारी अवश्य हो गए हैं। हाँ, स्त्रियों ने घर से बाहर काम पर जाकर नियम बदल अवश्य दिए। अब वे भी घर से निकलते समय सजतीं व घर आकर पुरुष की तर्ज पर पाजामाधारी, नाइटीधारी (जिसे हम गाउन भी कहते हें जो दोनों में से शायद कुछ भी नहीं है।) पुराने सलवार कुर्ताधारी या शॉर्ट्सधारी बन जाती हैं।
हमारे मन के बराबरी वाले कोने को शान्ति तो बस शाहरुखखान के विज्ञापनों ने दी, ब्यूटी पार्लर्स में भवें नुचवाते, छाती की वैक्सिन्ग कराते, शायद आह, आउच करते हीमैन ने दी। गोदना करवाते, नाक कान के अतिरिक्त भवों, होठों में भी छेदन करवा नथ, रिन्ग, लौंग व न जाने क्या क्या पहन सजते पुरुषों ने दी। फेयर एन्ड हैन्डसम! अहा, यह हुई न फेयरनैस वाली बात! यह क्या कि सदियों से सुन्दर दिखने के चक्कर में स्त्रियाँ ही कष्ट सहती रहीं। त्वचा को चमकाती निखारती रहीं और पुरुष धूप में जली त्वचा लिए भी पूर्ण आत्मविश्वास के साथ स्वयं पर इतराता रहा! कहीं स्त्रियाँ लम्बी गर्दन पाने के लिए गर्दन में एक के बाद एक रिन्ग पहनती गई तो कहीं नाक कान में न जाने कितने छेद करवाती रही, गोदना करवाती रही, भारी भरकम साड़ियाँ गहने पहनती रहीं। अब जब पुरुष सज रहे थे तो हमारे सहज होने रहने के दिन आ गए। हम भी रिलैक्स कर सकती हैं व पुरुषों को सजने का भरपूर अवसर दे सकती हैं।
अब पुरुष मोर हो रहा है तो स्त्री भी उसका नृत्य देख आनन्द महसूस कर सकती है, अभिभूत हो सकती है। सबसे बड़ी बात है कि इस वित्तीय संकट, इकनॉमिक डाउनटर्न के समय भी कुछ इन्डस्ट्री तो फलफूल रही हैं. लोगों को जमकर रोजगार दे रही हैं, सरकार को टैक्स दिला रही हैं वह है फैशन इन्डस्ट्री, पुरुषों के सजने निखरने के यानि ग्रूमिन्ग के उत्पादों की इन्डस्ट्री, उनको बेचने वाली दुकानें, मॉल आदि, पुरुष या यूनिसैक्स ब्यूटी पार्लर, सैलून आदि। अब पुरुष किसी भी ऐरे गैरे नाई से दस बीस रुपए में बाल कटवा या पाँच रुपए में दाढ़ी छिलवाकर अपने को देवानन्द नहीं समझने लगता। अब तो तीन सौ, पाँच सौ में आधा या पाव सैन्टीमीतर बाल छँटते हैं। बन्धु यह नहीं कहते कि भैया जरा अधिक छोटे काट दो ताकि दो महीने की छुट्टी हो जाए और फिर महीने भर यूँ नहीं डोलते फिरते जैसे घर में कोई चल बसा हो।
अब गार्नियर, इमामी पुरुषों की सज्जा के उत्पाद बना रहे हैं। विश्व भर में प्रति वर्ष २५ बिलियन डॉलर के तो शेविंग उत्पाद ही बिकते हैं। इमामी ने तो फैयर एन्ड हैन्डसम के जरिए ही भारतीय पुरुषों को १६२ करोड़ रुपए की कीमत का चूना लगा गोरा कर दिया! सोने के दाम आकाश छू रहे हें किन्तु पुरुष गहने खरीद रहे हैं, पत्नी के लिए ही नहीं अपने लिए भी। एक विख्यात सुनार का कहना है कि पुरुषों के गहने कुल बिक्री का २० से २५ प्रतिशत होते हैं।
अब मॉल में पति पत्नी कब खरीददारी खत्म करेगी सोचता हुआ घिसटता हुआ एक असहाय सा प्राणी नहीं रह गया। वह भी नए नए सामान खोजने, देखने खरीदने को उत्सुक जल्दी से जल्दी खाद्य सामग्री खरीद ग्रूमिन्ग उत्पादों की तरफ खिंचा चले जाने वाला प्राणी हो गया है। अब वह भी बिना सोचे, बिना योजना बनाए, क्षणिक जोश में कपड़े, जूते, इत्र, क्रीम आदि आदि खरीद डालता है। उसकी अलमारियाँ भी कपड़ों से पटी रहती हैं। उसकी साज सज्जा का सामान भी कम जगह नहीं घेरता।
शायद अब कोई नया गीत बने 'सजना है मुझे सजनी के लिए........'!
घुघूती बासूती
हा हा हा, बहुत मजा आया. अब तो पुरुष भी खूब समय लगाते हैं संवरने में..
ReplyDeleteदुःख के दिन बीते रे भैया...अब सुख आयो रे...रंग जीवन में नया छायो रे...
ReplyDelete:-)
बढ़िया लेखन..
सादर.
इसतरह बंदा सजता भी है तो सजनी के लिए नहीं एक तरह के दिखावे के लिए
ReplyDeleteसही कहा जी आपने, और देखिये शोर मचता है कि नारी को बराबरी का हक चाहिये:)
ReplyDeleteसही है। जब जेंडर्स के सभी अंतर मिट रहे हैं तो ये भी सही।
ReplyDeleteसौन्दर्य प्रसाधन का बाजार इतना बड़ा हो गया है कि केवल महिलाओं से काम नहीं चल रहा है।
ReplyDeleteहमारी टिप्पणी कहाँ चली गयी घुघूती बासूती जी????
ReplyDeleteबेचारा मोर नहीं भी बने तो ये विज्ञापन वाले बना देंगे :)
ReplyDeleteजो भी कहो जागरूखता आ रही है. :)
hmmmmmmmm
ReplyDeleteसच में मज़ा आया पढने में ,अब वाकई हम बहुत सहज महसूस करते है ....लडको को टोकने में भी आनंद आता है ...कैसे रहते हो ...
ReplyDeleteसजना का सजना भी जरूरी है ज़िन्दगी के लिये
ReplyDeleteबस एक सनम चाहिये सजनी के लिये
वक्त के साथ सब बदलता है तो ये क्यों नहीं……:))))))))
महिलाएं अब खरीदारी सौंदर्य प्रसाधन में, कम करने लगी है, इसीलिए पुरुषों पर कंपनिया डोरे डाल रही हैं
ReplyDeleteमजा आ गया. ये तो होना ही था. ब्रांडों के चक्कर में आदमी भी ब्रांडेड हो गया है.
ReplyDeleteहाहाहा मजा आ गया पोस्ट पढ़ कर ..बेचारे ही मेंन का ब्यूटी पार्लर में क्या हाल होता होगा .अच्छी चुटकी दी आपने .. और तुलनात्मक अध्यान नारी और पुरुष का श्रृंगार ...बहुत खूब ..
ReplyDelete:)
ReplyDeleteमुझे भी यह गीत कभी परेशान किया करता था - जब १३-१४ साल की होने लगी थी - और "बराबरी " का भूत सवार हुआ था | परन्तु अब -? नहीं - अब नहीं करता |
क्यों? - क्योंकि - अव्वल तो मुझे लगता है की हम "स्वान्तः सुखाय" सजते हैं | दूसरा - यदि स्त्री "सजना" के लिए सजती है, और पुरुष स्त्री के लिए नहीं सजते - तो इसका अर्थ तो यही निकलता है की पुरुष जिस्मानी सज धज पर रीझते हैं - तो उन्हें रिझाने के लिए यह काम करना होता होगा , परन्तु स्त्रियों में ज्यादा गहराई है - वे जिस्मानी सौन्दर्य नहीं - प्रेम से ही प्रेम करती हैं - इसीलिए तो पुरुषों को उन्हें रिझाने के लिए यह सब करने की आवश्यकता नहीं पड़ती न ?
मजेदार पोस्ट। हकीकत बयान करती हुई। इस ओर दृष्टि डालकर न केवल आपने अपनी बल्कि सभी सजनियों के अहम को तुष्ट किया है, मन को खुशी पहुंचायी है। पुरूषों को चिढ़ाया मगर सभी खिसियाकर भी तारीफ ही कर रहे हैं:) वैसे पुरूषों को सजने की आदत डालने में महिलाओं का ही बड़ा हाथ है। कहीं कहीं पुरूषों की यह सजने की प्रवृत्ति महिलाओं के लिए घातक भी सिद्ध हो रही है:
ReplyDeleteहा हा हा...मुझे तो ढेर सारे गीत याद आ गए---
ReplyDeleteओ ओ ओ सजनी बरखा बहार आई.....
सजनी-सजनी पुकारूँ गलियों में......
सजनी साथ निभाना ...........
मेरी सजनी है उस पार मैं इस पार ......
बस...बस...बस.....और सबसे बेस्ट लाईन --
"अब पुरुष मोर हो रहा है तो स्त्री भी उसका नृत्य देख आनन्द महसूस कर सकती है"....:-)नॄत्यों की कल्पना.करो तो.......हा हा हा
bahut manoranjak post.....
ReplyDeleteसमय के साथ-साथ परिवर्तन भी निश्चित है...... उपरोक्त प्रस्तुति हेतु आभार....
ReplyDeleteबदलते समय के साथ विचारों में बदलाव आवश्यक है ,पहले पुरुष ही अधिकतर नौकरी करते थे अब स्त्रियाँ भी करने लगी .पहले स्त्रियाँ ही सजती थी तो अब पुरुषों का सजना स्वीकार करना होगा .सुंदर रचना
ReplyDeleteसही कहा है आपने।
ReplyDeleteहम तो श्रीमती जी के लिए क्रीम लाते हैं, और उसे ही लगा लेते हैं।
बहुत ही शानदार पोस्ट है।
ReplyDeleteहा हा!! अब सजने जा रहे हैं...बाय!!
ReplyDeleteDosti ek aisa khoobsorat taj hota hai
ReplyDeleteJis par har ek dost ko naj hota hai
Krishan aur Sudama ki dosti yahi kahti hai
K Bhagwan bhi dosti ka mohtaj hota hai
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ReplyDelete.
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हुम्म... तो यह बात है... अब कभी कभार हमारा एकाध रेडीमेड कमीज जीन्स, व बेहतर शेविंग क्रीम, रेजर आदि खरीदना भी खल रहा है आप लोगों को... चिन्ता न करिये... कितना ही सजना शुरू कर ले पुरूष... पर ४ डिग्री सेल्सियस तापमान पर स्लीवलेस ब्लाउज के साथ सिल्क की साड़ी व दर्द से चरमराती पिंडलियों-टखनों के बावजूद आठ इंच की पेंसिल हील पहनने की अक्ल(???) कभी नहीं आ पायेगी उसमें... :)... महिलाओं का राज कायम है और रहेगा, सजने-संवरने के मामले में...
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ReplyDelete.
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कुछ दिन पहले की गई मेरी टिप्पणी दिख नहीं रही... :(
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