आ गईं तुम
फिर से?
नित आती हो
कुछ मोहित सी तुम
पल भर को तकती हो
मैं भी भ्रमित सी
विस्मृत सी,
कुछ जानी पहचानी
कुछ अपनी सी,
कुछ बेगानी
अपलक तुम्हें तकती हूँ।
जैसे जौं पर से ढेरों
भूसा हटाने पर
मिलता है
मोती सा दाना।
कुछ वैसे ही
तुम पर से हटाती हूँ
चर्बी की परतें
और हटाती हूँ
समय की रूपहली धूल।
झाड़ पोंछ तुम्हें व
अपनी यादों को
देखती हूँ
इक बार फिर से,
तो
कह उठता है दर्पण
अजनबी,
तुम जानी पहचानी सी लगती हो!
घुघूती बासूती
Monday, July 04, 2011
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khubsurat
ReplyDeleteकह उठता है दर्पण
ReplyDeleteअजनबी,
तुम जानी पहचानी सी लगती हो!
क्या बात...क्या बात....सच समय के धूल के नीचे वो पहचानी सी सूरत सुरक्षित ही रहती है.
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteयादों की गर्त में बहुत कुछ छिपा रहता है ।
ReplyDeleteकह उठता है दर्पण
ReplyDeleteअजनबी,
तुम जानी पहचानी सी लगती हो!..
..सुंदर रचना,आभार.
झाड़ पोंछ तुम्हें व
ReplyDeleteअपनी यादों को
देखती हूँ
इक बार फिर से,
तो
कह उठता है दर्पण
अजनबी,
तुम जानी पहचानी सी लगती हो!
...bahut badiya chitramayee rachna...
Aapke lekhan me ek tazagee hoti hai jo bahut achhee lagtee hai!
ReplyDelete:):) बहुत सुन्दर ..एक समय आता है कि अपना ही चेहरा अजनबी लगने लगता है ...
ReplyDeleteदरपन झूठ न बोले.
ReplyDelete"तुम जानी पहचानी सी लगती हो!
ReplyDeleteघुघूती बासूती"
आईने भी कभी झूठ बोलते हैं .....
हाथ कंगन को आरसी क्या ?
सुंदर रचना,आभार.
ReplyDelete...प्यारी कविता।
ReplyDelete...पल भर के लिए ही सही, खुद से जुड़ने का एहसास वाकई खूबसूरत होता है।
स्वयं से बतियाना कितना अच्छा लगता है।
ReplyDeleteज़िन्दगी के रंग कितने भी हों लेकिन खूबसूरत चेहरे पर तो एक ही रंग अच्छा लगता है---- आत्ममुग्ध ,अत्मविश्वास --- तो आईना कैसे झूठ बोलेगा? शुभकामनायें।
ReplyDeleteभावप्रणव सुन्दर रचना!
ReplyDeleteबस एक वो ही तो अपनी लगती है।
ReplyDeleteयादों को कुरेदते रहे दर्पण खुद ही बोल उठेगा
ReplyDeleteक्या बात है..उम्दा!!
ReplyDeleteअति सुंदर रहस्योद्घाटन! आभार.
ReplyDeleteकंकर जल में फ़ेंक जल के स्तर पर उठती तरंगों समान विचार आता है कि साकार मानव रूप स्वयं प्रतिमूर्ती माना गया है निराकार परमात्मा का! जो एक ही व्यक्ति विशेष के निरंतर परिवर्तनशील प्रकृति को जीवन पर्यंत प्रतिबिंबित करता है आयु के साथ भिन्न प्रतीत होते अनंत रूपों द्वारा (एल्बम में लगे एक ही व्यक्ति विशेष की जन्म से वर्तमान तक की तस्वीरों जैसे),,, जिन्हें किसी क्षण विशेष पर सीधे सादे दर्पण ही जन्म से वर्तमान तक लगभग सही प्रतिबिंबित करने में सक्षम हैं,,, किन्तु प्रकृति में विविधता का सार तो कुछेक 'जादुई शीशे' ही कर पाते हैं जिन में एक ही व्यक्ति विशेष के एक ही क्षण में हरेक में अनेक विभिन्न प्रतीत होते रूप दिख जाते हैं :)
ज़िन्दगी की भाग-दौड़ में खुद से भी अनजान होते जा रहे हैं... हम्म सही कहा है आपने..
ReplyDeleteकुछ शब्द यूँ ही अचानक एक क्षण में ही एक कविता या कविता सी कुछ या कहिए कुछ भावों को जन्म दे जाते हैं। उस दिन रश्मि के लेख पर 'क्या पता हमने देखा भी हो टी वी पर! अबकी देखूंगी तो सोचूँगी की ये तो पहचानी सी लगती हैं.' टिपियाते हुए छूटा हुआ अजनबी शब्द मन में ये भाव जगा गया। यदि ब्लॉग न होता तो किसी के सामने इन भावों को परोसने में भी झिझक होती।
ReplyDeleteआप सबने टिप्पणी लिखकर कुछ पलों में लिखे इन भावों को इतना भाव दिया, आभार। यदि टिप्पणियाँ न होतीं तो हममें से कितने कबके हथियार डाल अपनी दुकान बंद कर खो गए होते। कभी कभी लगता है कि जैसे पाठक के बिना लेखक का होना अर्थहीन सा होता वैसे ही टिप्पणियों के बिना ब्लॉग भी सूना होता।
घुघूती बासूती
घुघूती बासूती जी, जो आपने कहा वो मस्तिष्क का प्राकृतिक स्वभाव माना जाता है कि केवल एक शब्द विशेष ही किसी के मन को एक क्षण में ही कहीं का कहीं पहुंचा सकता है ("जहाँ न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि")...
ReplyDeleteऔर प्राचीन योगी तो स्वयं 'मन' की भांति अपनी इच्छानुसार सशरीर यात्रा करने में सक्षम थे !!
सुंदर रचना,आभार|
ReplyDeleteयह कुछ कुछ आत्म चिंतन सा लगता है. बहुत सुन्दर लगी.
ReplyDeleteप्यारी सी सुन्दर सी और बहुत कुछ अपनी सी कविता ... शब्द मन को कुछ कहते हुए से है ... आत्म चिंतन या soul searching बहुत जरुरी है आज के जीवन में ..
ReplyDeleteबधाई ..इस कविता के लिये ....
आभार
विजय
कृपया मेरी नयी कविता " फूल, चाय और बारिश " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/07/blog-post_22.html
सुन्दर
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