जापान में आए भूकम्प व सुनामी ने बहुत से लोगों को मौत की नींद सुलाया होगा किन्तु न जाने कितने लोगों को जीवन व रिश्तों के बीच में से एक चुनने को मजबूर किया होगा और जीवन चुनने पर जीवन भर के लिए उनकी नींद व चैन गायब कर दिया होगा।
सोचिए, आपके घर में आप पति पत्नी हैं, शायद एक दो बच्चे हैं, (या आप अकेले हैं) और बहुत वृद्ध माँ या पिता हैं, या फिर वृद्ध के स्थान पर कोई बेहद बीमार व्यक्ति है, कोई लकवाग्रस्त है या कोई और असहाय है। अचानक टी वी पर या सेल फोन पर भूकम्प की चेतावनी आती है। आप क्या करेंगे? बाहर भागेगें या फिर वृद्ध या असहाय को हाथ पकड़ या घसीटते हुए या पीठ पर लाद बाहर ले जाने की चेष्टा करेंगे, यह जानते हुए भी कि जब तक आप दरवाजे तक भी न पहुँचेंगे भूकम्प आ चुका होगा?
यह स्थिति तो फिर भी सरल है, भूकम्प आने पर घर के अन्दर रहते हुए भी आपके बच जाने की संभावना काफी है। सो आप माँ का हाथ पकड़े बैठे रह सकते हैं। किन्तु यदि सुनामी की चेतावनी आए और आप जानते हैं कि उससे रक्षा तो कोई भी नहीं कर सकता तब आप क्या करेंगे? क्या तिनके की तरह बहने के बाद जल समाधि लेने को घर में बैठे रहेंगे? या फिर अपने इलाके के सबसे ऊँचे टीले की तरफ भागेंगे? हो सकता है कि माँ के साथ जल समाधि लेना पसन्द करेंगे। किन्तु तब क्या जब आपकी अपनी संतान हो? वे घर में हैं तो उन्हें लेकर भागना आपका पहला दायित्व न होगा? यदि वे स्कूल, छात्रावास या कहीं और हों और वे अभी भी आप पर आर्थिक, मानसिक या भावनात्मक रूप से निर्भर हैं तब भी आपके लिए उनके लिए जीना सर्वोपरि न होगा? यदि आप पति या पत्नी हैं तब भी क्या एक दूजे के लिए जीना आपका पहला कर्त्व्य न होगा? और यदि आपका वृद्ध या असहाय के अतिरिक्त कोई और अपना न हो तो भी क्या अपने लिए जीना आपका प्राणी धर्म न होगा?
और यदि आप उस वृद्धा माँ को छोड़ भाग लिए तो? तो क्या जीवन भर अपने को निकृष्ट संतान मान अपराध बोध के साथ जिएँगे? या फिर आप इतने व्यावहारिक होंगे कि अपने दिल को यह कह कर बहला लेंगे कि अपनी जान बचाना प्राणी मात्र का प्रथम कर्त्तव्य है?
मुझे पूरा विश्वास है कि जैसे विमान यात्रा के समय बताया जाता है कि औक्सीजन मास्क की आवश्यकता पड़ने पर पहले स्वयं मास्क पहनो फिर अपनों की पहनने में सहायता करो या उन्हें पहनाओ। हर बार मैं सोचती हूँ कि यदि ऐसी स्थिति आई तो क्या मैं ऐसा कर पाऊँगी? जानती हूँ कि यह निर्देश सही है। आप ही यदि बेहोश हो गए तो आपपर निर्भर बच्चा या असहाय स्वयं को क्या बचा पाएगा? बचा भी लिया तो कैसे जी पाएगा?
मेरे सामने भी एक बार इतनी बुरी तो नहीं किन्तु ऐसी सी ही स्थिति आई थी। मेरी किशोर बेटियों के सामने भी एक बार आई थी। जब हम कर्नाटक- महाराष्ट्र की लगभग सीमा पर रहते थे तब १९९३ का लातूर भूकम्प आया था। मुझे देर रात या कहिए सुबह तक जागने की बीमारी थी, किन्तु एक बार जब सोती तो घोड़े, गधे, खच्चर सभी बेचकर ही सोती चाहे इस बेचने की प्रक्रिया में सुबह ही हो जाती। उस कुम्भकर्णी नींद से न अलार्म, न फोन की घंटियाँ(जो रात भर पति के लिए बजती ही रहती थीं), न कोई सामान्य आवाज मुझे उठा सकती थी। मुझे यदि कोई आवाज उठा सकती थीं तो बेटियों के बचपन में उनके रोने का पहला स्वर और बाद में उनके मुँह से हल्के से भी निकली 'माँ' की पहली पुकार! पति को केवल और केवल फोन की घंटी या अलार्म उठा सकते थे।(दोनो अपने अपने बेबीज़ पर समर्पित थे, कारखाना उनका बेबी था!) सो उस रात भी मैं 'माँ उठो, भूकम्प' सुनकर उठी थी। बड़ी बिटिया छोटी का हाथ थामे, उसे घसीटती हुई हमारे कमरे में लाई थी। हम दोनों उठे और मैं फायर एस्केप से नीचे जाने को कहती रही, पति वहीं बैठे रहने को कहते रहे। सीढ़ी तक जाना और नीचे उतरना बहुत समय लेता। फायर एस्केप तो झूल ही रहा होगा। खैर, बड़ी बिटिया ने स्वयं भागने के स्थान पर बहना को उठाया, हमें उठाया और सबसे अधिक जागी हुई वह, हमारे साथ उस झूलते मकान में बैठी प्रलय की प्रतीक्षा करती रही।
मेरे सामने यह स्थिति २००१ के गुजरात भूकम्प के समय आई। गणतंत्र दिवस था। मेरे बगीचे की दीवार के बाद ही वह मैदान था जहाँ पति झंडा फहराने वाले थे, बच्चों के स्कूल के कार्यक्रम, खेल, मस्ती के कार्यक्रम होने वाले थे। मुझे बुखार था सो मैं घर पर ही सोई हुई थी। नौ बजे का कार्यक्रम था। घुघूत उससे पहले कारखाने का काम निपटाने कारखाने में व्यस्त थे। ८० मीटर के प्री हीटर टावर पर वेल्डिंग का काम हो रहा था। पाँच कर्मचारी उस ऊँचाई पर लकड़ी के प्लेटफॉर्म पर बैठे काम कर रहे थे। घुघूत निरीक्षण कर रहे थे कि अचानक धरती और साथ साथ प्री हीटर टावर वैसे ही झूलने लगे जैसे बचपन में आप और हम झूले पर बैठ पींगे चढ़ाते थे। ८० मीटर की ऊँचाई पर बैठे लोग तो खैर ऐसे झूल रहे थे कि धरती पर खड़ा व्यक्ति अपने नीचे खिसकती धरती को भूल उन्हें ही देखता रह जाए।(सौभाग्य से वे बच गए। )
मैं पलंग पर सोई हुई थी कि अचानक बादल आकाश पर गरजने की बजाए धरती के अंदर गरजने लगे। इस गड़गड़ाहट को सुन मैं जागी और तीन शब्द मेरे मस्तिष्क में कौंध गए.....भूकम्प, ताशी, डोली। मैं छलाँग लगा उठी और उठने से पहले ही चिल्लाने लगी, 'ताशी, डोली कम, ताशी, डोली कम, बेबी कम, वाल्कीज़, कम ताशी, डोई कम!' सौभाग्य से वे कुत्ते थे, बिल्लियाँ नहीं, सो वे आ गए और उन्हें बाहर करने के बाद ही मैं घर से बाहर निकली। बाहर हमारी कार का खुला बूट जोर जोर से हिल व खड़खड़ा रहा था, सामने गेट पर गोलाई में लोहे के सरियों पर चढ़ी बेल झूल रही थी। बाहर जाने के रास्ते के दोनो ओर का लॉन ऊपर नीचे हो रहा था। चलना या खड़ा रहना असम्भव लग रहा था। सामने के घर के लोग बाहर आ गए थे। मैं चिल्ला रही थी, 'आपकी माँ कहाँ हैं, उन्हें बाहर बुलाओ।' वे 'ओह हाँ' कह 'माँ, माँ' चिल्ला रहे थे। बचपन से मेरे दुःस्वप्नों में जो भूत मुझे अनन्त ऊंचाई वाले झूले पर झूला झुलाते थे, लगता था वे आज सच में अपना करतब दिखा रहे थे। सामने वालों की माँ के बाहर आने तक प्रकृति का ताण्डव बन्द हो गया था। मुझे फिर भी अपनी माँ की याद आई। समाचार सुनती माँ, जो मेरी चिन्ता में न जाने कितनी मौत मर जाती। मैं अन्दर भागी। सबसे पहला फोन भाई को किया। कहा 'मैं सुरक्षित हूँ।' मेरा यह कहना था कि फोन लाइन मृत हो गईं। उसके बाद लगभग तीन दिन तक हमारा संसार से कोई सम्पर्क नहीं रहा। बेटियाँ छात्रावास में हमारी चिन्ता में घुलती रहीं। तब तक जब तक उन्हें मामा को फोन करने का ध्यान नहीं आया।
मैं बस यह सोचती हूँ कि यदि मेरे पास कुत्तों की जगह अपनी छोटी बिटिया की तरह बिल्लियाँ होतीं? प्रायः वे बुलाने पर नहीं आती हैं। मैं तब क्या करती? उन्हें छोड़ भाग पाती? यदि घर में कोई बिस्तर पर पड़ा होता, जो चल न पाता, तो? उसे छोड़ भाग पाती? क्या हमारा उत्तरदायित्व विशेषकर उनके लिए ही है जिन्हें या तो हमने जन्म दिया है या जिन्हें हमने बच्चों की तरह पाला है, जो हमपर पूर्णतया निर्भर हैं, जिनके जीवन में हम ही माँ बाबा हैं, चाहे वे कुत्ते या बिल्लियाँ ही क्यों न हों?
यह भूकम्प व सुनामी मुझे बहुत से नैतिक प्रश्नों में उलझा गया है।
हाँ, जाते जाते एक और प्रश्न। यदि हम स्वयं स्वस्थ, गतिशील न होकर बिस्तर पर पड़े होते और हमारे बच्चे या हमारा परिवार हमारे लिए सुनामी में जल समाधि लेने को तैयार होता तो? क्या हम उन्हें यह करने देते? या फिल्मों की तरह कसमें दे उन्हें घर व हमें छोड़ने को मजबूर करते? या यदि पास में पिस्तौल होती तो...............!
आप बताइए आप क्या करते?
घुघूती बासूती
Tuesday, March 15, 2011
जापानी भूकम्प व सुनामी से उपजे प्रश्न..............घुघूती बासूती
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आप एक बहुत प्यारी सी माँ हैं न, इसलिए ऐसा सोच पा रही हैं। हो सकता है अन्य स्त्रियाँ भी ऐसा ही सोचती हों। निश्चित ही एक पुरुष इस सोच के आसपास भी नहीं पहुँच सकता, यदि उस ने बिना माँ के अपने बच्चों को न पाला हो।
ReplyDeleteयह इस पर निर्भर करता है कि किसमें altruism की कितनी गहरी /गहन प्रवृत्ति है !
ReplyDeleteपरिवार पहले है..
ReplyDeletemam
ReplyDeletein japan most of the homes have either the younger generation or the senior generation because in japan once you marry you need to live away from your parents
its mandatory and people dont marry till they have a place of their own
they have the tsumani and earthquake kits at home again mandatory
but yes if one has to chose it would be really difficult to chose
मुझे पूरा विश्वास है कि जैसे विमान यात्रा के समय बताया जाता है कि औक्सीजन मास्क की आवश्यकता पड़ने पर पहले स्वयं मास्क पहनो फिर अपनों की पहनने में सहायता करो या उन्हें पहनाओ।
ReplyDelete-यह घोषणा हर बार हवाई जहाज में सुन मैं भी विचार में पड़ जाता हूँ कि शायद ही कोई माँ ऐसा कर पायेगी.
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ReplyDeleteनिश्चित रूप से परिवार पहले होगा.
ऐसी आपदा के समय आदमी पहले परिवार के बारे में ही सोचेगा|
ReplyDeleteउफ़्फ़! ... कल ही मै ये सब सोच रहा था।
ReplyDeleteसभी अपने बारे में पहले सोचते हैं!
ReplyDeleteजब ये सब सुनना पढ़ना देखना हौलनाक लगता है तो भुगतना कितना त्रासद होगा मैं समझ सकता हूं !
ReplyDeleteइससे आगे आपका सवाल ? उस पर निशब्द हूं !
कुछ साल पहले हमारे यहा भी भूकम्प आया था और मै भी घर से भाग गया था अपने पिता और दादी को छोड कर .फ़िर अचानक मुझे अपने उपर गुस्सा आया मै कितना बुजदिल हूं .तुरन्त वापिस भी आया लेकिन आज भी एक अपराधवोध है मेरे अन्दर उस दिन की घटना का
ReplyDeleteउफ़...कल्पनाभी नहीं की जाती इन बातों की की क्या होगा...सच में बहुत डरावना मंज़र होता है ये .....
ReplyDeleteअभिभावक किसी भी स्थिति में हो , सबसे पहले अपने बच्चों के बारे में ही सोचेंगे ...
ReplyDeleteजयपुर में भी एक रात खिड़की दरवाज़ों के हिलने की तेज आवाज़ के बीच नींद खुली , जैसे ही समझ आया भूकंप है ,दोनों भागते हुए सबसे पहले बच्चों के कमरे में ही गए ...!
बच्चे ही सबसे पहले आते हैं ज़ेहन में....
ReplyDeleteबड़ा ही कठिन प्रश्न है, पर अन्ततः मानवीय संवेदनायें ही विजय पाती हैं मन में।
ReplyDeleteबड़ा मुश्किल सवाल है...लेकिन उस वक्त की परिस्थितियाँ ही बता सकती हैं कि क्या प्रतिक्रिया होगी.... बरसों पहले एक बस दुर्घटना में मम्मी सिर्फ भाई का नाम पुकार रही थी जिसे कुदरत ने उलटती बस में से सही सलामत बाहर फैंक दिया था...उस वक्त की अपनी बहादुरी पर खुद ही यकीन नहीं हुआ था कि कैसे माँ , मासी , बहन और डैडी को बस से बाहर निकाला था...
ReplyDeleteधीरु भाई की साफ़गोई और ईमानदारी को प्रणाम।
ReplyDeleteमाँ के लिये तो बच्चे ही पहले आते हैं । बस जापान की त्रास्दी पर मन सहमा सा हुया है कुछ कहते नही बनता। शुभकामनायें।
ReplyDeleteमानवीय संवेदन शीलता मनुष्य को तात्कालिक निर्णय लेने के लिए प्रेरित करती है
ReplyDeleteकुछ नहीं कह सकता.. ऐसी स्थिति से दूर दूर का भी वास्ता नहीं है... उस समय पता नहीं कैसी प्रतिक्रया हो... उस समय अगर कोइ पहले भाग भी जाता है तो यह समझना ठीक नहीं होगा कि वह अपने परिवार से ज्यादा अपनी जान की चिंता करता है.. यह इस बात पर निर्भर करता है कि कोई जीवट और धैर्यवाला है या जल्दी घबरा जाने वाला..
ReplyDeleteअभी एक या दो साल पहले दिल्ली में हल्का सा भूकंप आया था.. मैं जेएनयू में होस्टल में सो रहा था.. आपके जैसा ही रूटीन मेरा भी रहता है.. अचानक रूममेट ने जगाया कि उठो बाहर निकलो भूकंप आ रहा है.. जब मैं गहरी नींद में होता हूँ तो भूकम आये या सुनामी.. :)मैंने सोते में ही कहा सो जा यार कुछ नहीं होगा... बेचारा कुछ निर्णय नहीं ले पा रहा था.. वहीं खडा रहा.. वैसे मेरी बात ही सही निकली.. कुछ नहीं हुआ :)
hum apni kahe to Chunav kisi bhi isthiti mai sahi nahi hota. chahe hum apne ma baap ko chune ya apne baccho ko dono hi pristhiti mai hum apne ko kos hi rahe honge.
ReplyDeleteya fir hum agar iss isthiti main apno ko bacha bhi lete hain to dusro ko na bacha pane ke liye afsos karte hain...
to ese mai dukhi to hona hi hain chahe kuch bhi ho..
यह तो बहुत ही विषम परिस्थिति में डाल दिया है आपने तो..
ReplyDeleteऐसा सोचना ही मेरे लिए बहुत मुश्किल हो रहा है.. वाकई में बहुत मुश्किल..
कभी अच्छे से सोचूंगा और बताऊंगा..
पर ज़हन में इस सोच के बीज को बोने के लिए धन्यवाद..
आभार
चलती दुनिया पर आपके विचार का इंतज़ार
बहुत ही कठिन सवाल है..पता नहीं उस स्थिति में किसकी क्या प्रतिक्रिया हो...पर एक संवेदनशील मन चाहे स्त्री का हो या पुरुष का...हमेशा खुद से पहले दूसरों के बारे जरूर सोचेगा...
ReplyDeleteमुझे तो लातूर और गुजरात की घटना के बाद डर लगने लगा....अब आप मुंबई की बाढ़ का जिक्र ना करें...शुक्र है उस समय के कोई अनुभव नहीं हुए आपको...
बहुत सामयिक और प्रेक्टिकल प्रश्न उठाये ... किन्तु मैंने ऐसी स्तिथि झेली है और प्रत्यक्षदरसी हूँ खुद की ... जो पहला इंस्टिंक्ट है ..जो पहला रिफ्लेक्स है - जो हज़ारो हज़ारो साल से विकास के क्रम मे हर प्राणी के अंदर प्राकृतिक विद्वमान गुण है... वह यह है कि जब दिमाग तक बात नहीं पहुचती पहले झटके मे हर प्राणी अपने को बचाने के लिए कूदता है... किन्तु जैसे ही दिमाग काम करना शुरू कर देता है .. तब रिश्ते याद आते है .. और फिर वापस भी जाता है उस जगह ... जहाँ वो अपने खास को बचाए ... नैसगिक गुण है हर प्राणी का खुद की रक्षा ...
ReplyDeleteबस गाडी पलट रही हो तो आदमी अपनी रक्षा करने के लिए शरीर घुमाता है... तब उसका हाथ अपने खास रिश्ते के ऊपर से छूट जाता है ,,..
जिंदगी बहुत बेरहम चीज होती है
ReplyDeleteसमाचार सुनती माँ, जो मेरी चिन्ता में न जाने कितनी मौत मर जाती।
ReplyDeleteउद्वेलित करने वाली पोस्ट। जिस बात का अभ्यास हमने रोज़मर्रा के जीवन में न किया हो वह आपत्काल में कैसे आयेगा? इसी तरह जो माँ बच्चे को खिलाये बिना खा नहीं सकती, सुलाये बिना सो नहीं सकती उसे इस सवाल का जवाब सोचने की ज़रूरत ही नहीं है। जो होना चाहिये वह बिना सोचे समझे कर बैठेगी।