Wednesday, March 02, 2011

जब सन्दूक खुलते हैं...............घुघूती बासूती

जब सन्दूक खुलते हैं
तो निकलते हैं
स्मृतियों के रेले
मीठी, खट्टी, नमकीन,
कसैली, स्वादहीन
शायद थर्मोकोल के
स्वाद सी भी स्मृतियाँ।
भूली बिसरी या फिर
कल की ही बात सी
लगती स्मृतियाँ,
एक बिन्दास लड़की
से नवविवाहिता
सिन्दूर भरी माँग वाली
'सबके मन का करती' से
थक हार अपने मन का
जीने की चाह ले
'....' कह
कुछ अपराध बोध,
अपराध बोध से मुक्ति की चाह
अपनी राह पर चलने के प्रयास
और प्रयास में असफल
होने की अनुभूतियाँ।
किन्तु जो राह छोड़ी
उसे शायद कभी न पा सकने
की मजबूरी का आभास
लौट लौट मन का उन राहों पर जाना
बार बार चेष्टा कर
मन को वापिस पिंजरे में लाना
पिंजरे में ही प्यार,
पिंजरे के बाहर ही जीवन
और जीने की आस
मानव होने का अहसास
व्यक्ति होने का आभास
प्यार और स्व के बीच
नित छिड़ती लड़ाई।
पिंजरे के भीतर रहने
और बाहर निकलने
की कसमसाहट
इन दो वाँछित अवाँछित
अवस्थाओं के बीच
नित छिड़ता द्वंद।
चलचित्र की तरह
सब दृष्य दिखते हैं
सब दृष्य जी लेते हैं
जब सन्दुक खुलते हैं।
घुघूती बासूती

26 comments:

  1. महिलाओं का जीवन बहुत कठिन है..

    ReplyDelete
  2. भारतीय नागरिक - Indian Citizen
    क्या आपसे कोई स्त्री असहमत भी हो सकती है ?
    घुघूती बासूती

    ReplyDelete
  3. पिंजरे में ही प्यार,
    पिंजरे के बाहर ही जीवन
    और जीने की आस
    मानव होने का अहसास
    व्यक्ति होने का आभास

    ओह!! यह क्या लिख डाला,आपने....दुबारा पढ़ने की हिम्मत नहीं हो रही....

    ReplyDelete
  4. वर्तमान परिस्थितियों से बाहर निकलने की कशमकश न जाे कितने सन्दूक खोल देती है। बहुत सुन्दर कविता।

    ReplyDelete
  5. स्मृतियाँ...अवशेष...आख्यान..अकुलाहट...जीवन, क्या क्या समेटे है मन-सन्दूक।
    सुन्दर कविता, बधाई स्वीकारें।

    ReplyDelete
  6. कशमकश से जुडी बहुत सुन्दर कविता-आभार.

    ReplyDelete
  7. Man ki gahri samvednaao ko shabdo me pirone ki behtareen koshish..
    Anmol

    ReplyDelete
  8. स्त्री जीवन की विवशता को अभिव्यक्त करती एक सुन्दर पोस्ट. .......... किन्तु स्त्री का क्या समग्र रूप यही है ?

    ReplyDelete
  9. कशमकश से जुडी बहुत सुन्दर कविता|
    आप को महाशिवरात्री की हार्दिक शुभकामनाएँ|

    ReplyDelete
  10. सच कहा..बहुत सुन्दर रचना.

    ReplyDelete
  11. यथार्थ को शब्दों में पिरो दिया है आपने, शुभकामनाएं.

    रामराम.

    ReplyDelete
  12. नया घर जमाते-जमाते जाने कितने पिटारे खुलेंगे यादों के।
    ...सुंदर कविता।

    ReplyDelete
  13. एक औरत के जीवन से जुडी कशमकश को बहुत खूबसूरती से प्रस्तुत किया है आपने । सुन्दर रचना ।

    ReplyDelete
  14. सच में महिलाओं का जीवन इसी द्वन्द से भरा होता है...बेहतरीन रचना

    ReplyDelete
  15. हर चेहरे की यही कहानी है
    हर आँख में वही पानी है ...

    ReplyDelete
  16. यादों का पिटारा है जो खुलता रहता है, खुलता रहे.

    ReplyDelete
  17. पिंजरे में तो सभी रहते हैं पर स्त्रियां कुछ अधिक ! संदूकें इधर भी खुलती हैं...कुछ कर पाने का सुख और बहुत कुछ ना कर पाने का दुःख भी कमोबेश वैसा ही !
    'अनुगमन की लाचारी' इस दुःख वैषम्य / त्रासद परिस्थिति आधिक्य का एकमात्र कारण लगती है मुझे वर्ना अनुभूतियों में अंतर शायद ही संभव हो !

    ReplyDelete
  18. स्मृतियों के रेले
    मीठी, खट्टी, नमकीन,
    कसैली, स्वादहीन


    सच है, यादों का सन्दूक खुलता है तो बहुत कुछ सामने आता है।

    ReplyDelete
  19. हा सही है ये संदूक का खुलना कभी कभी फिर से और दुखी कर देता है किन्तु कभी कभी जीवन को एक नया आयाम और फिर से जीवन जीने का शक्ति दे सकता है बस थोड़ी हिम्मत करे और चाहे की हा हमें जीना है अपने लिए खुली हवा में | रचना अच्छी लगी |

    ReplyDelete
  20. लगा.... जैसे मेरा संदूक खुला ....

    ReplyDelete
  21. स्मृतियों के रेले
    मीठी, खट्टी, नमकीन,
    कसैली, स्वादहीन
    लेकिन फिर भी संजोये रखना इस सन्दूक को अच्छा लगता है। सुन्दर रचना। शुभकामनायें।

    ReplyDelete
  22. संदूक से निकली हर तरह की यादें ....यथार्थवादी रचना

    ReplyDelete
  23. yadoin ke pitaren ko achha roop diyaa aapne hamesha ki tareh khoobsurat abhivyakti..

    ReplyDelete
  24. घुघूती बासूती ..बचों में अपनी दादी के कन्धों पर झूलने की मधुर स्मृतियों में खींच कर ले जाने वाली सुन्दर रचनाओं के लिए अपार स्नेह युक्त आभार....

    ReplyDelete
  25. read your poem after a long time skin shivered over the bones the emotions felt at the heart. what will be like when recited hope will hear them.

    ReplyDelete