जब सन्दूक खुलते हैं
तो निकलते हैं
स्मृतियों के रेले
मीठी, खट्टी, नमकीन,
कसैली, स्वादहीन
शायद थर्मोकोल के
स्वाद सी भी स्मृतियाँ।
भूली बिसरी या फिर
कल की ही बात सी
लगती स्मृतियाँ,
एक बिन्दास लड़की
से नवविवाहिता
सिन्दूर भरी माँग वाली
'सबके मन का करती' से
थक हार अपने मन का
जीने की चाह ले
'....' कह
कुछ अपराध बोध,
अपराध बोध से मुक्ति की चाह
अपनी राह पर चलने के प्रयास
और प्रयास में असफल
होने की अनुभूतियाँ।
किन्तु जो राह छोड़ी
उसे शायद कभी न पा सकने
की मजबूरी का आभास
लौट लौट मन का उन राहों पर जाना
बार बार चेष्टा कर
मन को वापिस पिंजरे में लाना
पिंजरे में ही प्यार,
पिंजरे के बाहर ही जीवन
और जीने की आस
मानव होने का अहसास
व्यक्ति होने का आभास
प्यार और स्व के बीच
नित छिड़ती लड़ाई।
पिंजरे के भीतर रहने
और बाहर निकलने
की कसमसाहट
इन दो वाँछित अवाँछित
अवस्थाओं के बीच
नित छिड़ता द्वंद।
चलचित्र की तरह
सब दृष्य दिखते हैं
सब दृष्य जी लेते हैं
जब सन्दुक खुलते हैं।
घुघूती बासूती
Wednesday, March 02, 2011
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महिलाओं का जीवन बहुत कठिन है..
ReplyDeleteभारतीय नागरिक - Indian Citizen
ReplyDeleteक्या आपसे कोई स्त्री असहमत भी हो सकती है ?
घुघूती बासूती
पिंजरे में ही प्यार,
ReplyDeleteपिंजरे के बाहर ही जीवन
और जीने की आस
मानव होने का अहसास
व्यक्ति होने का आभास
ओह!! यह क्या लिख डाला,आपने....दुबारा पढ़ने की हिम्मत नहीं हो रही....
वर्तमान परिस्थितियों से बाहर निकलने की कशमकश न जाे कितने सन्दूक खोल देती है। बहुत सुन्दर कविता।
ReplyDeleteस्मृतियाँ...अवशेष...आख्यान..अकुलाहट...जीवन, क्या क्या समेटे है मन-सन्दूक।
ReplyDeleteसुन्दर कविता, बधाई स्वीकारें।
कशमकश से जुडी बहुत सुन्दर कविता-आभार.
ReplyDeleteMan ki gahri samvednaao ko shabdo me pirone ki behtareen koshish..
ReplyDeleteAnmol
स्त्री जीवन की विवशता को अभिव्यक्त करती एक सुन्दर पोस्ट. .......... किन्तु स्त्री का क्या समग्र रूप यही है ?
ReplyDeleteकशमकश से जुडी बहुत सुन्दर कविता|
ReplyDeleteआप को महाशिवरात्री की हार्दिक शुभकामनाएँ|
सच कहा..बहुत सुन्दर रचना.
ReplyDeleteयथार्थ को शब्दों में पिरो दिया है आपने, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
नया घर जमाते-जमाते जाने कितने पिटारे खुलेंगे यादों के।
ReplyDelete...सुंदर कविता।
एक औरत के जीवन से जुडी कशमकश को बहुत खूबसूरती से प्रस्तुत किया है आपने । सुन्दर रचना ।
ReplyDeleteसच में महिलाओं का जीवन इसी द्वन्द से भरा होता है...बेहतरीन रचना
ReplyDeleteहर चेहरे की यही कहानी है
ReplyDeleteहर आँख में वही पानी है ...
यादों का पिटारा है जो खुलता रहता है, खुलता रहे.
ReplyDeleteपिंजरे में तो सभी रहते हैं पर स्त्रियां कुछ अधिक ! संदूकें इधर भी खुलती हैं...कुछ कर पाने का सुख और बहुत कुछ ना कर पाने का दुःख भी कमोबेश वैसा ही !
ReplyDelete'अनुगमन की लाचारी' इस दुःख वैषम्य / त्रासद परिस्थिति आधिक्य का एकमात्र कारण लगती है मुझे वर्ना अनुभूतियों में अंतर शायद ही संभव हो !
स्मृतियों के रेले
ReplyDeleteमीठी, खट्टी, नमकीन,
कसैली, स्वादहीन
सच है, यादों का सन्दूक खुलता है तो बहुत कुछ सामने आता है।
हा सही है ये संदूक का खुलना कभी कभी फिर से और दुखी कर देता है किन्तु कभी कभी जीवन को एक नया आयाम और फिर से जीवन जीने का शक्ति दे सकता है बस थोड़ी हिम्मत करे और चाहे की हा हमें जीना है अपने लिए खुली हवा में | रचना अच्छी लगी |
ReplyDeleteलगा.... जैसे मेरा संदूक खुला ....
ReplyDeleteस्मृतियों के रेले
ReplyDeleteमीठी, खट्टी, नमकीन,
कसैली, स्वादहीन
लेकिन फिर भी संजोये रखना इस सन्दूक को अच्छा लगता है। सुन्दर रचना। शुभकामनायें।
waah
ReplyDeleteसंदूक से निकली हर तरह की यादें ....यथार्थवादी रचना
ReplyDeleteyadoin ke pitaren ko achha roop diyaa aapne hamesha ki tareh khoobsurat abhivyakti..
ReplyDeleteघुघूती बासूती ..बचों में अपनी दादी के कन्धों पर झूलने की मधुर स्मृतियों में खींच कर ले जाने वाली सुन्दर रचनाओं के लिए अपार स्नेह युक्त आभार....
ReplyDeleteread your poem after a long time skin shivered over the bones the emotions felt at the heart. what will be like when recited hope will hear them.
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