Friday, January 14, 2011
आ रे कौआ, काले कौआ, औमलेट सा खा रे कौआ.............घुघूती बासूती
ओह कागा, तुम्हें यहाँ घुघूती की प्रीत खींच लाई है या फिर पीले पीले जर्दीले औमलेट? मुझे तो लगता है स्वास्थ्य वर्धक स्वादिष्ट अंडों की पकी हुई जर्दी का मोह ही तुम्हें यहाँ खींच लाता है। और मैं? मैं किस मोह में, सम्मोहन में तुम्हारे लिए जर्दी पकाकर देती हूँ?
यह कहानी बहुत पुरानी है। मेरी मजबूरी भी बहुत पुरानी है। हर सुबह तुम्हारे लिए जर्दी मैं तुम्हारे मोह में नहीं पकाती। मुझमें दया माया या पशुप्रेम बस ठीक ठीक अनुपात में ही भरा है, इतना भी नहीं कि वह मुझे अपाहिज कर दे, इस संसार में जीने के अयोग्य कर दे। समस्या यह है कि मुझसे कुछ फेंका नहीं जाता। कमसे कम वह सब तो नहीं जिसका मेरे हिसाब से कोई उपयोग अब भी हो सकता हो।
तो सुनो कागा, क्यों तुम्हें हर सुबह अंडा खाने को मिलता है, वह भी कच्चा नहीं, पका हुआ। बात पुरानी है। सदा यह अंडे की जर्दी तुम्हें नहीं मिलती थी।
घुघूत के परिवार में दोनों तरफ से मधुमेह की शिकायत थी। पिताजी को हृदय रोग था। सौभाग्य या घुघूत के दुर्भाग्य से मैंने होम साइन्स में स्नातक किया था। न्युट्रिशन, आहार, पोषण मेरा प्रिय विषय था। सो सदा ध्यान रहता था कि घुघूत के स्वास्थ्य का ध्यान रखना है। जैसे ही उन्होंने अपने वजन पर से लगाम छोड़ी, मैंने भोजन में लगाम कस दी। हर स्वास्थ्य वर्धक वस्तु उन्हें खिलाती थी, हर हानिकारक भोजन को कम करने में लगी रहती थी। उनके पास तो अपनी सुध रखने को भी समय न था सो यह काम मैंने सम्भाल लिया था।
कम से कम १८ या २० वर्ष पहले ही मैंने उनके आहार में से अंडे की जर्दी कम कर दी थी। जर्दी में बहुत से गुण भी होते हैं, बच्चों के लिए बहुत लाभदायक है, किन्तु एक उम्र के बाद हानिकारक अधिक होती है। सो मैं उन्हें नाश्ते में बिना जर्दी का अंडा देती हूँ। मैं तो अंडा खाती नहीं तो अपने मेहतर/ नौकर/ माली आदि से पूछा कि क्या वह अँडा खाते है और उसके हाँ कहने पर हर सुबह उसके लिए एक प्लैट में ब्रैड स्लाइस व पकी हुई जर्दी रखती थी। दिल्ली में हमारी कामवाली शौक से तीन चार दिन फ्रिज में जर्दी जमा होने देती थी फिर एक दिन जब औमलेट बनाकर अपने बच्चों के लिए ले जाती तो मैं उसे एक अंडा भी मिलाने को देती ताकि ढंग का औमलेट बने।
जब से मुम्बई आई तब से परेशान हूँ कि क्या करूँ। कामवाली को ले जाने को कहा तो वह प्रायः भूल जाती है़, याद दिलाओ तो यदि ले जाती है तो मेरा बर्तन वापिस लाना ही भूल जाती है। वे स्वयं अंडा नहीं खातीं सो घर में उन्हें खिला नहीं सकती। हारकर मैंने जर्दी को पकाना शुरु किया व सैर को जाते समय अपने साथ बिल्ली कुत्ते के लिए ले जाना शुरू किया। अब समस्या बिल्ली कुत्ते को ढूँढने की हो गई। फिर मुझे कौओं का ध्यान आया। मैंने जर्दी पकाकर बालकनी में रखनी शुरू की। ( कच्चा अंडा तो सारे में फैल जाएगा।) अब तो यह हाल है कि सुबह के समय यदि मैं बालकनी में जाऊँ तो कौए आ जाते हैं।
लोग कहते हें शहरों में कौए नहीं बचे किन्तु सुबह के समय मुझे तो देखते से ही कौए आस पास मँडराने लगते हैं। यह एक सिम्बॉयटिक रिश्ता है। वह मेरी दर्बाद न करने की आदत को बचाकर मुझे सकून देते हैं और मैं शायद स्वादिष्ट भोजन दे उनकी क्षुधा मिटा पाती हूँ। अब मैं हर दिन 'काले कौआ' मनाती हूँ और कहती हूँ......
आ रे कौआ, औमलेट सा खा रे कौआ,
काँव काँव का राग सुना रे कौआ
प्रकृति अब भी हम संग है यह
आकर याद मुझे दिला रे कौआ !
संक्रान्ति, काले कौआ, घुघुतिया, उत्तरायणी के इस शुभ अवसर पर हे काले कौआ, तुझे बारम्बार शुभकामनाएँ, हैलो, हाय, नमस्कार व यथायोग्य आदि। यूँ ही आते रहना वर्षों वर्ष! लुप्त मत होना बस। कभी न कभी तो मनुष्य होश में आएगा और एकलखोर होने की बजाए वह संसार तुमसे व अन्य प्राणियों से साझा करने लगेगा। तब तक किसी तरह बस बने रहना कागा।
घुघूती बासूती
यह भी पढ़िएः
मकर संक्रान्तिः घुघुतिया और मेले ही मेले
मकर संक्रान्तिः घुघुतिया/ उत्तरायणी( उत्तराखण्ड का सबसे बड़ा पर्व)
पाठक घुघुतिया, घुघुति व घुघूती बासूती के बीच भ्रमित न हों इसलिए 'घुघूती बासूती क्या है, कौन है' का लिंक दे रही हूँ थोड़ा सा समय निकाल कर पढ़ियेगा।
काले कउवा, मधुमेही कउवा ! आ रे कउवा, खा ले शुगराइटी घुघुतवा!
घुघूती बासूती
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प्रकृति अब भी हम संग है यह
ReplyDeleteआकर याद मुझे दिला रे कौआ
मकर संक्रांति पर ऑमलेट के अलावा क्या पकाया आपने?
बड़ी प्यारी पोस्ट है।
ReplyDeleteकौआ, बड़ा प्यारा जीव है
हमारी बालकनी में आकर बिना बिस्कुट खाए नहीं जाता।
रोज़। आज भी।
mam
ReplyDeletei wish i was ur neighbor
यहां तो कौओं का भी दिखाई देना बन्द हो गया है..
ReplyDeleteये बहुत बड़ी मुसीबत है....पीली जर्दी का किया जाए...सबलोग हेल्थ कॉन्शस हो गए हैं...और डॉक्टर भी, 'एग वाईट' ही रेकमंड करते हैं,...मुंबई की बाइयों के पास तो इतना वक्त ही नही होता...ना ही उनका कोई इंटरेस्ट होता है... ऑमलेट बना कर खाने में. इतनी देर में वे किसी और घर का कोई काम निबटा लेंगी.
ReplyDeleteआपने तो बढ़िया तरीका निकाला....आजमाई जा सकती है,ये तरकीब. कौवे तो हमारे यहाँ भी दिखते हैं.
यहाँ भी कव्वे अब कम हो चले है.अच्छी पोस्ट.
ReplyDeleteकोए आमलेट खाने लगे हैं, तभी वे सादा खाना खाने नहीं आते।
ReplyDeleteसुंदर पोस्ट!
पर्व की बहुत शुभकामनायें।
ReplyDelete.
ReplyDelete.
.
बहुत पीछे ले गईं आप...
गले में घुघुति-माला होती... जिसमें सबसे नीचे लटक रहा होता था संतरा या किन्नू... और आज के दिन हम सब छत पर जाकर पूरे विश्वास से कौवों से कह रहे होते थे...
ले कव्वा तलवार...
मिकी द्ये सोनक् हार...
ले कव्वा डमरू...
मिकी दियै सोनक घुंघरू...
बाल मन तब भी यह सोचता था कि सोने की ही चीजें क्यों माँगी जाती हैं... आज समझ आता है कि अभावों के बीच सोने की चाह क्यों करता है पहाड़...
घर में माँ आज भी ४१ बरस के इस बच्चे के लिये घुघुति माला बनाती है... और जब भी मैं घर जाता हूँ तो द्याप्ताथान में कील पर टंगी मिलती है मुझे वह...
...
घुघुतिया पर्व की बहुत शुभकामनायें।
ReplyDeleteएगिटेरियन का व्हाइटेरियन और योकेटेरियन, वाह. रोचक.
ReplyDeleteअब मैं हर दिन 'काले कौआ' मनाती हूँ और कहती हूँ......
ReplyDeleteकाले कौव्वा काले-काले ,ताज़ा आमलेट खाले-खाले....
यह जानकर ख़ुशी हुई की आप हररोज काले कौव्वा मानते हैं, और इस रहस्य से भी अब पर्दा उठ चुका है की क्यों कौव्वे दिन-प्रतिदिन मोटे होते जा रहे हैं ,यहाँ पर कव्वों से मेरा तात्पर्य क्या हो सकता है ......?
हंस चुगेगा दाना तिनका ,कौवा मोती ( आमलेट ) खायेगा ..................................हा .....हा......हा.....
बहरहाल एक प्रेरक पोस्ट हेतु आभार और शुभकामनाएं .
विगत तेरह सालों से,बिहार में जन्म होने के बावजूद, इन तमाम कुमाऊँनी त्योहारों से इस कदर जुड़ा हुआ हूँ कि बिहार वाले पर्व-त्योहार तो लगभग भूल ही चुका हूँ। हमारे मिथिला में मकर-संक्रांति दूसरे ही ढ़ंग से मनायी जाती है, तिल और लाई के संग....लेकिन कर्म से कुमाऊंनी हो गया हूँ तो...तो...
ReplyDeleteआज बड़े दिनों बाद आपको पढ़ने आया तो पोस्ट मन को छू गयी है। ये काला कौआ आपकी सदा सुनता रहे हमेशा हमेशा...!
कौए भी एगिटारियन हो गए तभी तो सारे पहाड़ के कौए गायब हो गए
ReplyDeleteआपकी सोच बड़ी सृजनात्मक है ! जी खुश कर दिया आपने !
ReplyDeleteबहुत ही रोचक. वैसे कोप्परखैरने में कौवे हैं और किचन के अन्दर घुस भी जाते हैं. देखिये अब आपकी दोस्ती हो जायेगी. कल ही पढ़ा था उत्तराखंड में आज के दिन बच्चे गले में पकवानों की माला पहने कौंवों से गुहार लगाते हैं.
ReplyDeleteये तो आपने बहुत ही अच्छा तरीका निकाला है कोई खाद्य पदार्थ नुकसान न हो इसके लिए और संक्रांति पर नै प्रथा का क्योकि आजकल हर ज्योतिष कहता है की गरीबो को काले कम्बल बांटो(कम्बलों का क्या हश्र होता है है सर्वविदित है )हाँ किन्तु काले कोए को आमलेट खिलाना कोई" टोटका "ही न बना ले ?
ReplyDeleteक्योकि कलि गाय को गुड खिलाना ,बहती नदी में कोयला प्रवाहित करना काफी प्रचलित है |
पर्यावरण संतुलन पर इतनी प्यारी पोस्ट के लिए धन्यवाद और आपकी सोच को सलाम.मकरसंक्रान्ति की शुभकामनाए.
ReplyDeleteये तो "काले कउआ ले फूलौ.." वाली कहानी हो गई :-)
ReplyDelete:) :) ...
ReplyDeleteमकर संक्रांति पर शुभकामनायें ...थोड़ी देर से पढ़ पायी आपकी पोस्ट ...लेकिन आपकी सकारात्मक सोच के साथ प्रकृति से जुड़ाव बहुत भाया ...
सुन्दर रोचक चित्रमय आलेख पढ़कर बहुत अच्छा लगा ... अच्छी रोचक जानकारी प्रस्तुति के लिए धन्यवाद
ReplyDeleteघर से दूर, यहाँ मकर संक्रांति की तो कोई शुभकामनाएं भी नहीं देता | वहां मैं माँ को हमेशा यही बोलता था की क्या रट लगायी रहती है तेरी, हर दूसरे तीसरे दिन आज संक्रांत , आज मासांत |
ReplyDeleteबेहतरीन एवं प्रशंसनीय प्रस्तुति ।
ReplyDeleteअगर अदरवाइज न लें तो कहूंगा कि मुझे पोस्ट पढते हुए ब्लॉग जगत के कौवों की याद आ गयी।
ReplyDelete-------
क्या आपको मालूम है कि हिन्दी के सर्वाधिक चर्चित ब्लॉग कौन से हैं?
बेहतरीन प्रस्तुति। बहुत दिनो बाद आने के लिये क्षमा चाहती हूँ\
ReplyDeleteये तो बड़ा जो अच्छा तरीका निकला है आपने, एक तो खाद्य पदार्थ का उपयोग भी और लगातार कम होते जा रहे कौव्वे भी दिख रहे हैं,
ReplyDeleteस्वास्थ्यगत कारणों के चलते काफी देर से पहुंचा इसे पढने के लिए