शेष भारत में जो हुआ हो सो हुआ हो आज नवीं मुम्बई में तो बन्द का यह हाल था कि मुझे यहाँ आने से पहले की अपनी बस्तियों की याद आ गई। न कोई शोर, न वाहनों की आवाज, न हॉर्न की आवाज। जहाँ तक नजर जाए खाली सड़कें ही दिखती थीं।
जहाँ मैं रहा करती थी वहाँ हम सहेलियाँ शाम को सैर को जाया करतीं। सड़क पर हम ऐसे चलतीं जैसे सड़क अपनी ही हो। पूरी सड़क को घेरकर। कभी कभार कोई छकड़ा दिख जाता जिसका ड्राईवर चिल्लाकर हमें जय श्री कृष्ण कह जाता। कभी कोई बच्चे साइकिल पर जाते दिख जाते और हम रास्ता छोड़ देते और वे वैसे भी गुड ईवनिंग मैम या नमस्ते आँटी कहने को रुक जाते।
पूरे घण्टे भर की सैर में चार कारें मिल जातीं तो हम कहते आज बहुत ट्रैफिक है। यदि आठ मिल जातीं तो लगता कहीं कुछ गड़बड़ हुई है। और यदि ये गाड़ियाँ हस्पताल से कुछ पहले दिखतीं तो किसी अनहोनी की शंका होती और यदि एम्बुलैन्स भी दिख जाती तब तो बस दिल धक ही हो जाता। कुल मिलाकर १२५ परिवार ही तो होंगे वहाँ। शेष अधिकतर मजदूर पास के गाँवों से आते या कम्पनी की बसों में शहर से आते। सो यदि किसी को एम्बुलैन्स में हस्पताल ले जाया जा रहा होता या गाड़ियाँ दौड़ रही होतीं तो जिसे भी कुछ कष्ट हुआ होता वह अपना ही तो होता। फैक्ट्री में तो वैसे भी दुर्घटना होना पीड़ित व अधिकारियों सबके लिए ही बहुत दुर्भाग्यपूर्ण ही होता है।
तो आज की खाली सड़कें मुझे इन बस्तियों की ही याद दिला रही थीं। एक दो मिनट तक सड़क खाली रहती फिर कोई गाड़ी गुजरती और पहले जहाँ सड़क की भीड़ में आप अपनी गाड़ी पर भी नजर टिकाए नहीं रख पाते थे आज मैं उसे तब तक देख पाती जबतक वह सड़क के साथ ही ओझल न हो जाती।
कभी कभार कोई इकलौती कार या दुपहिया ऐसे दौड़ता जैसे सड़क न होकर कोई रेसिंग ट्रैक हो। आज तो जो साहसी लोग अपना वाहन ले सड़क पर निकले वे हवा से बातें करते हुए उड़ रहे थे। गाड़ी चलाने का असली आनन्द तो शायद आज ही उन्हें मिला हो।
सुबह सुबह बसें चल रही थीं किन्तु बिल्कुल खाली खड़खड़ाती हुईं। दूर लोकल ट्रेन भी जाती दिखती किन्तु सदा की तरह लोग बाहर तक लटकते हुए नहीं दिखते बल्कि कोई ही इक्का दुक्का व्यक्ति ट्रेन में दिखता। जहाँ मुझे यह सब देख लगता कि आज तो मैं भी इन सड़कों पर अकेले घूमने जा सकती हूँ वहीं जब मेरी कामवाली बाई आई तो वह बहुत ही बौखलाई हुई थी। उसका कहना था, 'सुनसान सड़कें देख मुझे डर लग रहा था। पूरी सड़क पर बाई, पाँच छह ही लोग दिखते थे। बहुत डर लग रहा था। लगता था कि हर आदमी मुझे ही घूर रहा है, मेरी ही तरफ आ रहा है। हर रोज तो कितनी बढ़िया भीड़ रहती है और बिल्कुल डर नहीं लगता।'
उसकी बात सुन मैं बस्ती में अपनी सूर्योदय से पहले की घण्टे भर की अकेली की सैर याद कर रही थी। सूर्योदय होते होते तो घर भी लौट आती थी। तब पूरे रास्ते केवल गाय, बैल व कुत्ते ही दिखते थे। कभी कभार पोखर के पास नील गायों व हिरणों का झुण्ड भी दिख जाता था। दो एक सैर करने वाले पुरुष नमस्ते कहते हुए निकल जाते थे। कभी भय नहीं लगा। मैं शहर की भीड़ में सुरक्षा के अहसास के बारे में सोचने लगी और लगा कि वह सही कह रही है। सच में शहर में सुरक्षा तो भीड़ में ही है। तभी तो स्त्रियाँ ही क्या शायद पुरुष भी लोकल के खाली डिब्बे में नहीं चढ़ना चाहते। बस्ती में तो कितनी बार ऐसा होता था कि हमारे मौहल्ले के कुल जमा दस मकानों में केवल एक ही में परिवार रह रहा होता। वैसे भी प्रायः हम तीन या बहुत हुआ तो चार ही परिवार होते थे। यदि शेष परिवारों की स्त्रियाँ अपने बच्चों के पास उनके शहर चली जातीं तो शाम देर रात तक पूरे मोहल्ले में केवल एक अकेली स्त्री होती। पुरुष तो वैसे भी बहुत देर से घर लौटते। हमारे मकानों के बाद खेत शुरू हो जाते थे। पीछे भी जंगल ही था।
और यदि ऐसे में दुर्योग से बिजली चली जाती तो ऐसा लगता कि काले अंधेरे समुद्र के बीचों बीच एक टापू में केवल तुम ही हो और तुम्हारे साथ है एक मोमबत्ती या दिया! कहीं भी कोई प्रकाश नजर न आता। ऐसे में बाहर आँगन में निकल या छत पर चढ़ तारे देखने का अपना ही रोमाँच होता था। वैसे भी बस्तियों का आकाश तारों से पटा होता है। शहर में तो तारे भी नहीं दिखते या इक्के दुक्के ही दिखते हैं। यदि चाँदनी रात होती तो बाहर ही कुर्सी लगा पति व बिजली की प्रतीक्षा होती। भय! यह तो कभी लगता ही नहीं था। कभी कभार चौकीदार अपने टॉर्च को चमकाता चक्कर लगा जाता।
तो आज के बन्द ने और जो कुछ किया हो या न किया हो मुझे अपने बीते दिनों की याद अवश्य दिला दी। अब भारत ने कितना खोया और मँहगाई कितनी कम होगी यह तो कल का समाचार पत्र व भविष्य ही बताएगा। हाँ, ड्राइवर, एक कामवाली बाई व घुघूत ने छू्ट्टी अवश्य कर ली। यह मेरे जीवन का दूसरा बन्द था, पहला बनारस में अपने तीन दिन के प्रवास में देखा था। उसपर चर्चा फिर कभी।
घुघूती बासूती
Tuesday, July 06, 2010
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बंद का कुछ तो फायदा ही हुआ... पुराणी यादें याद आयी और कुछ लोगों को आराम मिला ...
ReplyDeleteमहंगाई एक दिन के बंद से ना कम होनी थी ना होगी ..!
चलो अच्छा रहा आपने इसमें से कुछ सकारात्मक निकाल लिया :)
ReplyDeleteबन्द चेतावनी हो सकती है मगर समाधान नही!
ReplyDeleteband ko dekhne ka ek nazariya yah bhii dikha...
ReplyDelete....shahar men karfyoo lagne par kuchh log prasann hote hain ki chalo aaj aaram krne ka mauka mila..!
कुछ ’हवा से बातें करने’ वालों की हवा निकाली भी गई होगी। बन्द ने ग्राम जीवन का गजब स्मरण कराया ,आपको।
ReplyDeleteवाह तब तो बंद का असली मज़ा नेताओं की बजाये आपने लिया। चलो इस भागम भाग की जिन्दगी मे इसी बहाने कुछ राहत तो मिली मंहगाई तो कभी कम हुयी नही। बहुत अच्छा संस्मरण लिख दिया बंद के बहाने
ReplyDeleteशुभकामनायें।
देखिये एक बंद ने यादे ताज़ा कर दी ! आपको फायदा ही हुआ !:-)
ReplyDeleteहवा तो मंहगाई ने सारी जनता की निकाल रखी है।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
महंगाई एक दिन के बंद से ना कम होनी थी ना होगी ..!
ReplyDeletevaani jee ki baat se sahmat
महंगाई के विरोध में आज टिप्पणी बंद !
ReplyDeleteभीडे नार्मली वो कर गुज़रती है जो अकेला इन्सान शायद अपने समझदार दिमाग से वैसा कुछ कभी न करे.. भीडो के वहशीपन को तो समझता था लेकिन ये अहसास जैसे जानकर भी कितना अनजाना था..
ReplyDelete’भीड़ में सुरक्षा के अहसास...’
भागती मुम्बई को बन्द ने थोडी देर रोका तो.. शायद सब इसी तरह आत्म मन्थन मे गये होगे..
सही कहा कल मुंबई कुछ अजनबी सी लगी...रुकी हुई मुंबई को पहली बार देखा...
ReplyDeleteपाप की पोस्टिंग पर कुछ ऐसे ही परिवेश में हम भी रहते थे, आपकी पोस्ट ने बहुत कुछ भुला बिसरा याद दिला दिया...वो तारे-खचित आकाश...और हवा के झोंके से लैम्प के लौ की जोर आजमाईश...संन्नाटे में झींगुर की आवाज़.
तब क्या बन्द देश को भी 20 वर्ष पीछे ले जायेगा, आपको तो यादों में ले ही गया ।
ReplyDeleteकुछ लोगों को भीड़ से डर लगता है. अब आप इतनी अभ्यस्त हो गयीं हैं की भीड़ न होने से जी घबरा गया. ब्लोग्वानी के न होने से बड़ा कष्ट है. आपकी फीड नहीं मिलाती.
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