हमारे कुछ नेता चाहते हैं कि जनगणना में जाति भी पूछी जाए। सोचती हूँ कि यदि जनगणना में कोई मुझसे मेरी व मेरे परिवार की जाति पूछेगा तो क्या कहूँगी? जिस जाति में मेरा जन्म हुआ, जिससे विवाह किया या कोई जाति नहीं? तीन दशक से कुछ कम वर्ष पहले जब हमसे बिटिया के स्कूल दाखिले के समय जाति का नाम भरने को कहा गया था तो हमने उसे खाली छोड़ दिया था। प्रिन्सिपल ने बुलाया और भरने को कहा तो हमने कहा था कि हम नहीं भर सकते, क्योंकि उसकी कोई जाति नहीं है। सच में जब दो जाति वालों की संतान होती है तो वह जातिविहीन होती है। जाति धर्म तो है नहीं कि आप कोई भी अपना लें। यदि हममें से एक की जाति उसे देनी ही है तो फिर यह जातिवाद कभी खत्म नहीं होगा।
उस समय हम और हमारे जैसे गिने चुने लोग सोचते थे कि हम जाति प्रथा को तोड़ रहे हैं। हम जाति को भूल ही गए थे। जाति का हमारे जीवन में को स्थान नहीं था। परिवार में इतनी जाति, समाजों व प्रान्तों के लोग आ रहे थे कि लगता था कि छोटा मोटा भारत घर में ही बसता है। बच्चों ने तो जाति शब्द कभी सुना ही नहीं था। यह तो भला हो वी पी सिंह और मंडल आयोग का कि बच्चों में भी जिज्ञासा जागी कि यह जाति क्या होती है और वे किस जाति की हैं। तब भी हमने उन्हें यही बताया कि उनकी कोई जाति नहीं है। वे आजतक स्वयं को जातिविहीन ही कहती हैं। अब जब यह प्रश्न मुझसे, उनसे व सबसे पूछा जाएगा तो हम क्या उत्तर देंगे? 'जातिविहीन' या फिर जातिवाद को बढ़ावा देते, बात बात में जाति जाति का राग आलापने वाले नेता लोगों को अपनी जनसंख्या अधिक से अधिक प्रतिशत न दिखा पाने के लिए मैं कहूँ कि मैं 'क' जाति की हूँ, पति 'ख' के व बेटियाँ 'अकड़म बकड़म बम्बे बो, अस्सी नब्बे पूरे सौ' वाली तकनीक का उपयोग कर अपने को 'क' या 'ख' जाति का कहें या फिर इस 'अकड़म बकड़म बम्बे बो, अस्सी नब्बे पूरे सौ' प्रक्रिया में अपने अपने पति की 'ग' या 'घ' जाति को भी अवसर दे दें। या फिर हम सब छह अपने को 'जातिविहीन' कहें और नेता जनों के हाथ सुदृढ़ करें? क्या यह किसी को चिढ़ाने के लिए अपनी नाक कटवाने जैसा तो नहीं होगा? या फिर यही व्यवहारिक होगा, नाक जाए वहाँ जहाँ हमारे नेतागण उसे भेजना चाहते हैं। वैसे भी जो नाक केवल हमारी बेटियों के जाति भीतर व गोत्र बाहर विवाह करने से ही टिकी रहती हो उस नाक का क्या लाभ? वैसे भी वह नाक तो हम व हमारे माता पिता ३२ वर्ष पहले ही गंवा आए। यदि गाना आता तो 'माचिस' के उस गीत 'छोड़ आए हम वो गलियाँ' की तर्ज पर गाती....
छोड़ आए हम वो जातियाँ
या
तज आए हम वो नाकें!
किन्तु नहीं, जाति भूल सकें यह किसी भारतीय का भाग्य कहाँ? वह जितना भी भुलाना चाहे याद दिलाई ही जाएगी। तो क्या किया जाए, जाकर किसी खाप से जुड़ जाया जाए? कोई याचिका भेजें सरकार को कि नेता जी के साथ हमारा नाम भी गिन लीजिए। अब यदि विदेशों में पढ़े, वहाँ के 'Distinguished Alumni Award for 2010 by the University of Texas at Dallas' से नवाजे, तिरंगे के लिए न जाने कितनी लड़ाई लड़े नेता भी खाप का साथ देने लगें तो हम किस खेत की मूली हैं? यदि विदेशों में पढ़े लोग भी जाति व गोत्र से चिपके रहेंगे तो यह फेविकॉल का जोड़ है जैसी समस्या है, शायद जब तक हम अन्य ग्रहों में नहीं हो आते इनसे चिपके रहने को शापित हैं।
गोत्र के भीतर(अन्तःगोत्रीय?)व अपने गाँव के भीतर विवाह पर पाबन्दी लगाने का अर्थ असल में प्रेम विवाह पर पाबन्दी लगाना है। क्योंकि व्यक्ति किससे प्रेम कर सकता है? उसीसे ना जिससे वह अपनी पढ़ाई या काम के स्थान पर मिलता है, जो उसके आस पड़ोस में रहता हो, या उन लोगों से जो किसी न किसी तरह दिनचर्या में उसके सम्पर्क में आते हैं। सो यदि प्रेम के लिए गोत्र व गाँव के बाहर जाएँगे तो यह सुविधा केवल शहरी लोगों या छात्रावास में पढ़ने वालों या शहर में नौकरी करने आने वालों को मिल सकती है। आम व्यक्ति के लिए प्रेम करने पर प्रतिबन्ध ही लगाना हुआ। शायद वे भारतीय कानून या हिन्दू विवाह कानून में बदलाव कर प्रेम विवाह पर भी प्रतिबन्ध लगवाना चाहें।
प्रेम करने वाले तब क्या अपना धर्म या देश बदलने को मजबूर होंगे? क्या आर्य समाज भी गोत्र मानता है?
एक रहस्य की बात बताऊँ? लगता है कि यह जाति का बुखार संक्रामक है। थोड़ा थोड़ा मुझपर भी चढ़ रहा है। क्या कोई प्रतिरोधक टीका है इसके लिए? इससे पहले कि दशकों की मेहनत व सोच नाली में जाए, मुझे टीका लगवाना है। जल्दी..............
और यह तब जब परिवार में ऐसे कई सदस्य आ जुड़े हैं जिनसे हमने कभी जाति पूछी ही नहीं व दक्षिण का होने के कारण उनके नाम से जाति की घंटी हमें तो कमसे कम बजती नहीं सुनती, और ऐसे भी सदस्य जुड़े हैं जो अन्य राष्ट्रों, धर्मों के हैं और हम टीका खोज रहे हैं! है न विडंबना?
घुघूती बासूती
Tuesday, May 11, 2010
मुझपर भी चढ़ रहा जाति का बुखार !...........................घुघूती बासूती
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टीका बनाने वाली कंपनी को उपद्रवियों ने आग लगा दी।
ReplyDeleteटीका मिले तो पेटेंट करवा लीजियेगा, हमने भी कभी किसी की जाति नहीं पूछी यही सुना था
ReplyDelete"जाति ना पूछो साधू की "
अब पता नहीं सड़े-गले रिवाजों को वापस कब्र से निकाल रहे है
मेरी समस्या थोड़ी बड़ी है. जैन में जाती नहीं होती. केवल उपनाम या सरनेम कहते है वह होते है. वह भी भेद करने के लिए, कहीं एक ही परिवार में शादी न हो जाए. बाकी सब समान होते है. कोई ऊँच नीच नहीं. अतः मैं क्या लिखाऊँगा. हो सकता है जैन लिखाने से वह जाति पूछे ही नहीं.
ReplyDeleteदुःख हुआ सुनकर कि आप किसी जाती की नहीं है ,। जाती की आवश्यकता हमारे समाज को पहले भी थी और अब भी हैं और आगे भी रहेगी , जाती व्यस्था पूरी तरह से वर्णाश्रम पर निर्धारित है , । किसी भी राष्ट्र,समाज या परिवार ,को सुचारू रूप से चलाने के लिए कुछ नियम या व्यवस्थाये परिवार समाज या राष्ट्र के लोगो द्वारा निर्धारित की जाती है जो लचीली और लोचवान होती है- जो समय के साथ परिवर्तित होती रहती है, इनका मकसद केवल व्यवस्था कायम करना होता है बंधन बनाना नहीं ठीक उसी तरह की व्यवस्था जाति व्यवस्था भी है इसे एक परिवार से शुरू करते है हम सभी जानते है कि भारतीय परिवार व्यवस्था विश्व की शीर्ष परिवार व्यवस्था है अब एक परिवार को ठीक और सुचारू रूप से चलाने के लिए परिवार के प्रतेक सदस्य का कार्य निर्धारित होता है जो परिवार के मुखिया के द्वारा उसकी योग्यता के हिसाब से उसे दिया जाता है जैसे प्रत्येक घर में कोई बुजुर्ग व्यक्ति (दादा या दादी जो भी हो )जिन्हें जीवन का गहन अनुभव होता है वे अपने अनुभव परिवार के सभी सदस्यों के साथ बाटते है अतः वो ब्रह्मण का कार्य करते है दूसरी श्रेणी में वो लोग आते है जो अनुभव में अभी पूर्ण रूप से नहीं पगे है परन्तु बलिस्ट और जोशीले है अतः वो परिवार की मान्यताओं की रक्षा के लिए नियुक्त होते है और उनके मन में परिवार के प्रत्येक सदस्य के प्रति कर्तव्य बोध होता है और वो परिवार के प्रत्येक सदस्य के पालन पोषण के लिए जिम्मेदार भी होते है ऐसे सदस्य दूसरी श्रेणी में आते है इनमे (पिता या चाचा आदि ) इन्हें क्षत्रिय कह सकते है तीसरी श्रेणी में घर की महिलाए आती है जिनके हाथो में प्रबंधन का काम होता है अन्न भण्डारण का काम होता है वस्तु के विनमय(पास पड़ोस से वस्तुओ के आदान प्रदान की जिम्मेदारी ) का काम होता है और परिवार के अर्थ को भी नियंत्रित करती है इन्हें हम वैश कह सकते है , चौथी श्रेणी में घर के बच्चे या द्वितीय श्रेणी की महिलाए (पुत्र बधुये)और पुत्र और पौत्र इत्यादि जिनके जिम्मे घर की साफ़ सफाई और उपरोक्त तीनो श्रेणी के सदस्यों की आज्ञा पालन का कार्य आता है उन्हें हम शुद्र कह सकते है अब घर में चारो वर्णों के होते हुए भी घर का क्या कोई सदस्य आपस में वैर करता है सभी मिल जुल के रहते है और सबको समान अधिकार प्राप्त है और उनके कार्य क्षेत्र योग्यता के अनुसार परिवर्तित भी होते रहते है- या हम यूँ कह सकते है जाति योग्यता के हिसाब से बदलती भी रहती है जो बच्चे अभी शुद्र है वो बड़े हो कर क्षत्रिय या ब्रह्मण बन सकते है ठीक इसी तरह समाज में भी जाति व्यवस्था (वर्णाश्रम व्यवस्था )को हम देख सकते है समाज का वो वर्ग जो बुद्धि जीवी है तीव्र ज्ञान रखता है (अध्यापक ,वैज्ञानिक डॉ ,,ज्योत्षी )ब्राहमण है----- दूसरा वर्ग जो समाज की स्तिथि और सुरक्षा के लिए जिम्मेदार है (राजनेता सैनिक और पत्रकार आदि ) क्षत्रिय है तिसरा बर्ग जो समाज की अर्थ व्यस्था और उपभोगीता के लिए जिम्मेदार है (व्यपारी ) उन्हें हम वैश कह सकते है चतुर्थ वर्ग उन लोगो का है जो समाज के मेहनतकस लोग (सभी प्रकार के श्रमिक किशान इत्यादी )है जो समाज की जड़ का पर्याय है जिनके बिना समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती है उन्हें हम शुद्र कह सकते है अब कौन व्यक्ति इस वर्ण व्यवस्था पर उंगली उठायेगा और कहेगा की ये गलत है, फिर वर्णव्यवस्था की बुराई क्यूँ ? बुराई वहा से सुरु होती है -----जब ये वर्ण व्यवस्था कर्म के हिसाब से ना हो कर जन्म के हिसाब से हो जाती .
ReplyDelete। शायद आपको इससे कुछ मदद मिल सकें ।
जो उपाधि समाज बाँटे, उस उपाधि को हटा देने से भी लोग उस आधार पर बाँटना बन्द नहीं करेंगे । कुछ अधिकारी केवल कुमार लगाते हैं पर उनके परिवार की वंशावली लोग ज्ञात कर लेते हैं और उसी आधार पर उनसे व्यवहार होता है ।
ReplyDeleteकहाँ ऐसा तो नहीं की धर्म परिवर्तन करवाने की वृहद् साजिश रची जा रही हो.?
ReplyDelete@Mithilesh;
ReplyDeleteBlah blah blah...
Yah samasya jab mai school jati thi to mere pariwaar ko aati thi..mere Dada, wahan' Hindustani' likh dete the..ham ekhi shahar me,ek hi schoolme padhe,to mukhyadhyapak samajh gaye..!
ReplyDeleteMere bachhon ke saath aisa nahi ho paya..hamne banjaroki zindagi jee..mai bhi adig rahi aur bachhon ke liye jati column me 'Bharatwasi' likhti rahi..
ab yah janganna ko kya kiya jay,samajh nahi pa rahi hun!
बेहतरीन लेख...
ReplyDeleteछोड़ आए हम वो जातियाँ
ReplyDeleteया
तज आए हम वो नाकें!
किन्तु नहीं, जाति भूल सकें यह किसी भारतीय का भाग्य कहाँ?
.....\आज भी हमारे समाज में जातिवाद का जो कलंक है, उसकी भेंट आज भी क्या शहर क्या गाँव आज भी जस का तस है... पढ़े लिखे होने के बावजूद भी जब ऐसी घटनाएँ हमारे सामने आतीं हैं तो मन को बहुत ठेस पहुँचती है...
..सार्थक प्रस्तुति के लिए धन्यवाद.
जाति को बढ़ावा देना तो ठीक नहीं ।
ReplyDeleteलेकिन एक ही गोत्र में प्रेम विवाह --इस पर आपके विचारों से सहमत नहीं ।
क्या प्रेम करने के लिए दुनिया इतनी छोटी है ।
कृपया आज की मेरी पोस्ट भी पढ़ें और अपने विचारों से अवगत कराएँ ।
सौ प्रतिशत सहमत ! आप खुशनसीब हैं, जो जाति-बन्धन से छूट पायीं. हमलोगों को जाति-भेद तो नहीं सिखाया गया, पर जाति के अन्दर ही रह गये. रही-सही कसर मण्डल कमीशन की रिपोर्ट ने पूरी कर दी. बहुत ही खुशनसीब हैं आपके बच्चे, जिन्हें गैरजातीय होने का गौरव प्राप्त हुआ. पर, सच अगर कोई ऐसा करना भी चाहे तो समाज और संस्कृति के ठेकेदार उन्हें करने ही नहीं देंगे.
ReplyDeleteमैं तो स्वयं को जातिविहीन और गरधार्मिक दोनों ही घोषित करना चाहती हूँ, पर मुझे भी ये दोनों चीज़ें दौड़ा-दौड़ाकर पकड़ लेती हैं. अब बताइये मैं क्या करूँ?
और ये भी कि इन्हीं सगोत्रीय विवाह निषेध, अन्तरजातीय विवाह निषेध जैसे नियमों के कारण दहेज प्रथा ने इतना विकराल रूप ले लिया है. जब माता-पिता के लिये लड़का खोजने का दायरा इतना छोटा हो जायेगा तो वे ऊँचे दाम चुकाकर अच्छे से अच्छा लड़का खरीद लेना चाहेंगे ही.
अब क्या कहूँ....पढ़ रहा हूँ बस।
ReplyDeleteजाति तो दो ही है एक अमीर और दूसरी गरीब
ReplyDeleteधीरू जी से पूर्णतया सहमत. एक लड़ाई जाति प्रथा को दूर करने के लिये लड़ी गयी. अब लगता है कायम करने की लड़ाई जारी है
ReplyDeleteआखिर समाज जा किधर रहा हैं?????
ReplyDeleteइतनी मुश्किल से लोग जातिवाद से ऊपर उठकर समानता की लहर में बह रहे हैं तो ये राजनेता जातिवाद को बढावा देने में लग गये हैं!! आखिर भारतीय जनता की बुद्धि को हुआ क्या हैं??? चंद लोगो की बात सबकी बात कभी नहीं हो सकती........
.....पता नहीं भारतीय कब जागेंगे.....या क़यामत के दिन तक सोते रहेंगे......
जाति को 'जाती' मामला रहने देना चाहिए.
ReplyDeleteप्रेम विवाह में अधिकाँश 'आकर्षण विवाह' होते हैं.विवाह के बाद भी पत्नी से प्रेम हुआ करता है.
आज की पोस्ट पर प्रिय मिथिलेश जी की प्रतिक्रिया बड़ी जबरदस्त लगी ...आपको उनके सुझावों पर गौर करना चाहिये ! सच पूछिये तो ...अब तो मेरा भी दिल कर रहा है कि मैं खुद भी एक खाप बनाऊं ..खटिये पर बैठ हुक्का गुडगुडाते हुए घुघूती और घुघूत को सामने पेश करने का हुक्म दूं ...और कहूं ...खाप को ये शादी मान्य नहीं ...जाओ दोनों अपनी अपनी जाति / गांव...गली को लौट जाओ !
ReplyDeleteमुझे खुशी होगी यदि आज से कुछ बरसों बाद भी किसी तरह ये जाति धर्म सब पाताल में चले जाएं चाहे फ़िर उसके लिए पूरी इंसानी सभ्यता को ही एक बार जड से क्यों न मिटाना पडे। मैं निजि रूप से यही चाहता हूं ।
ReplyDeleteजनसंख्या कार्यकर्ता को चलो जैसे तैसे टाल देंगे..दस साल में एक बार की बात है पर इस बात का क्या करें कि हमारी बेटी लगभग रोजाना सवाल पूछती है कि 'पापा मेरी कास्ट क्या है ?' आप ही की तरह हम पति पत्नी की जाति अलग अलग है तथा बच्चों के नाम के पीछे कोई पुछल्ला नहीं है जिससे वो इस सवाल से दोचार रहते हैं... यानि हम मिटा दें तो भी समाज तो जाति खोदकर चस्पां कर ही लेगा... हर खांप एक सी ही हो जरूरी नहीं।
ReplyDeleteअली बात की बात से हल्की सी मुस्कराहट हमारे चेहरे पर आई, सोचा कि याद दिला दें कि किसी खाप-आप के चलते आपको फिर से निर्णय लेना हो तो आपको पता ही है कि ... :)
अच्छा है जाति का टंटा न रहे तो..मस्त रहिये. बढ़िया विचारणीय प्रसंग लिया आपने.
ReplyDeleteएक कहानी जैसा हा कुछ, याद आ रहा है.. पहले जब अंग्रेजी समझ में नहीं आती थी तब पढ़ने के वक्त अंग्रेजी गाने लगा देता था.. जिससे उसके वर्डिंग पर ध्यान ना जाए.. बाद में वह भी समझ में आने लगा तब तमिल गानो के साथ वही करने लगा.. अब तो मूवा तमिल भी समझ में आने लगा है..
ReplyDeleteकुछ-कुछ वैसा ही जैसे अब दक्षिण भारत के लोगों का दंभ भी समझ में आने लगा है कि रेड्डी है तो किस जाती है है और पेरियासामी है तो किस जाती का?
वैसे जिसे तर्क और कुतर्क में भेद जिसे समझ नही आता हो उसे यहाँ मौजूद बड़ी वाली टिप्पणी दिखा दिया जाए, एक ही बार में समझ जाएगा..
अरे वाह! बहुत बहुत बधाई. अब तो आप अल्पसंख्यक हो गयीं. हिन्दू-मुसलमान जैसे बहुसंख्यकों की तो बात ही क्या है, हमने तो तथाकथित प्रगतिशील क्रांतिकारियों को भी जाति के बुखार में तपते देखा है. उनके बीच में एक जाति-विहीन प्राणी के दर्शन? धन्य हो!
ReplyDeleteजाति और वर्ण का घालमेल करने वाली टिप्पणी की मानें तो जातिविहीन होते ही आप ऑटोमैटीकली वर्णविहीन (यानी बेरंग) भी हो गयीं, सो डबल बधाई!
पानी रे पानी तेरा रंग कैसा ...
जाति विहीन होना जैसे किसी संक्रामक रोग से बाहर आना ...बहुत अच्छा लेख !!
ReplyDeleteमिथिलेश की टिप्पणी जातियों के निर्धारण के तरीके को समझा रही है ....आदर्श स्थिति यही होनी चाहिए थी मगर समय के साथ जातियों का निर्धारण जन्म के आधार पर होने लगा है ...
ReplyDeleteमैं भी भूल जाना चाहती हूँ जाति को ...
मगर जब एक निम्न मध्यमवर्गिया व्यक्ति के बच्चे को बहुत अच्छे प्रतिशत लाने के बाद भी अच्छे महाविद्यालयों में एडमिशन के लिए तरसता देखती हूँ ....और एक अच्छे ओहदे वाले अफसर के बच्चे को बस पास होने लायक नंबर के बावजूद बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के अच्छे कॉलेज में दाखिला मिलते देखती हूँ तो ....
बार -बार अपनी जाति याद आ जाती है ....
This comment has been removed by the author.
ReplyDelete@ मसिजीवी
ReplyDeleteकई बार सोचता हूं कि खाप केवल एक संगठन है या प्रवृत्ति ?
फिर सूझता है ...शब्द 'खाप' ज़रूर 'खब्त' से उपजा होगा
नोट : तर्कशास्त्रियों / भाषाशास्त्रियों से क्षमा सहित
जाति....'जाती' रहे तो अच्छा है ...हम तो बड़े परेशान है इस पचड़े से ....गाँव में तो इसका बड़ा ....कानून कायदा है ...जो अजीब भी है और हानिकारक भी
ReplyDeleteदिया है जिसने यह बुखार!
ReplyDeleteवही तो है हमारी सरकार!
जाती प्रथा एक सर्वथा त्याज्य कुप्रथा है ! इसीके कारण हमारा देश हमेशा से गुलाम रहा है ...
ReplyDeleteज्ञानदत्त ने लडावो और राज करो के तहत कल बहुत ही घिनौनी हरकत की है. आप इस घिनौनी और ओछी हरकत का पुरजोर विरोध करें. हमारी पोस्ट "ज्ञानदत्त पांडे की घिनौनी और ओछी हरकत भाग - 2" पर आपके सहयोग की अपेक्षा है.
ReplyDeleteकृपया आशीर्वाद प्रदान कर मातृभाषा हिंदी के दुश्मनों को बेनकाब करने में सहयोग करें. एक तीन लाईन के वाक्य मे तीन अंगरेजी के शब्द जबरन घुसडने वाले हिंदी द्रोही है. इस विषय पर बिगुल पर "ज्ञानदत्त और संजयदत्त" का यह आलेख अवश्य पढें.
-ढपोरशंख
इस बार की जनगणना में जाति भी पूछी जायेंगी , सुनकर नाम दुःख , निराशा और क्षोभ से भर उठा . मैंने तीस साल का हूँ , और आज तक किसी ने मेरी जाति नहीं पूछी है और कभी जरुरत ही नहीं पडी की मै अपनी जाति किसी को बताऊ . मेरा व्यतित्व मेरी पहचान है और मै अपने कर्म से जाना जाता हूँ न की जाति से . शिव खेरा का कहना है की "जब आप धर्म बदल सकते है तो जाति क्यों नहीं" . क्या हम बस या ट्रेन में बैठते है तो बगल की सीट पर बैठे आदमी से उसकी जात पूछते है. शहरों में तो हम अपने पड़ोसी का नाम तक नहीं जानते, जाति जानने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता .
ReplyDeleteदरअसल , भारत में हम जाति से जितना भागते है उतना ही ये हमें तेजी से पकड़ती है . हम जाति वाद , छुआ छूत आदि से दूर होते जा रहे है पर हमारे देशद्रोही राज नेता ( लालू , मुलायम , शरद यादव ) हमें बार बार जाति की याद दिला रहे है . आखिर क्यों ? ये नेता आखिर जाति गिनाने के पीछे क्यों पड़े है , मकसद साफ़ है , ये नेता जातिवाद की राजनीती करके आगे बढे है , जाति से ऊपर उठने के बाद इनमे उतना दम ही नहीं है की अपनी राजनितिक जमीन को बचा सके . लालू ने १५ साल बिहार पर शासन किया , बिहार में जंगल राज स्थपित कर दिया , राज्या का तो विकास नहीं किया हां अपना विकास जरुर किया
लालू प्रसाद यादव का जन्म गोपालगंज के एक गरीब किसान परिवार में हुआ हैं. विधायक , सांसद , मुख्यमंत्री और रेल मंत्री रहे . जब बिहार के मुख्यमंत्री रहे तो उनके कार्यकाल में बिहार ने दिन दुनी रात चौगुनी बर्बादी देखी . हालाकि इसी काल में इनका बैंक बैलेंस खूब बढ़ा , इतना बढ़ा की आयकर बिभाग आज भी इनकी जांच कर रहा है . इस दौर में बिहार में हर बिभाग में घोटाले हुए , मसलन - महा चारा घोटाला , अलकतरा घोटाला , वर्दी घोटाला, बाढ़ राहत धोटाला, सूची इतनी लम्बी है की गिनते गिनते थक जायेंगे . पटना हाई कोर्ट ने कई उस समय के राज को जंगल राज कहा था . खुद लालू यादव कई घोटालों में फसे और कई महीने जेल में भी रहे .आज भी सी बी आई के पास लालूजी की एक मोटी फाइल तैयार है . मुख्यमंत्री रहते हुए जेल जाने वाले पहले महानुभाव थे लालू यादव . जब जेल जा रहे थे तो उस वक्त , बिहार को अपनी जागीर समझते हुवे , अपनी छठी पास पत्नी को मुख्यमंत्री बना गए जिसने बिहार को अगले सात साल तक बिहार पर राज किया , और बिहार को बीस साल पीछे गर्त में धकेल दिया . इनके१५ साल के शासन के बाद बिहार का कितना विकास हुआ यह मात्र एक तथ्य से देखा जा सकता है की जब बिहार से लालू राज हटा उस वक्त बिहार का अपना बिजली उत्पादन था मात्र १५ मेगा वाट (देश में सबसे कम ) .निजी क्षेत्र की एक भी बिजली कंपनी बिहार में नहीं है. फिर महासय रेल मंत्री बने , वहां भी खूब गुल खिलाये की कार्यकाल ख़तम होते ही स्वेत पत्र लाना पडा.
ReplyDeleteअब इनकी पारिवारिक स्थिति पर गौर करे , खुद बेहद गरीब किस्सान परिवार से है . सता मिलने के बाद अपनी बेटी तो कोटे के तहत जमशेदपुर के मेडिकल कॉलेज में दाखिला दिलाया , और जो लडकी प्रवेश परिक्षा देकर जिस कोर्स में एड्मिसन नहीं ले सकती थे , वो लडकी उस साल मेडिकल में टॉप कर गई. इनकी बेटी की शादी में पटना के सभी शो रूम से सभी गाड़ियां जबरदस्ती उठा ली गयी . इनके दोनों साले राजनीती में आये , पहले विधायक बने , फिर मंत्री फिर सांसद . खुद समाजवादी है पर इनका बेटा लन्दन में पढता है और आई पी एल की एक टीम में भी है जिसको बैन करने की मांग लालू जी करते है.
ReplyDeleteआखी में मै कहना चाहता हूँ
ReplyDeleteजाति छोडो , समाज जोड़ो
धीरे धीरे यह जाति प्रथा विलुप्त होने ही वाली है...ये है कि समय बहुत लगने वाला है...और तब तक पता नहीं ये कितनी बलियां ले ले और कितनी नाइंसाफी कर जाए...पर इसे खत्म होना ही है...महानगरों में तो आजकल अक्सर देखने में आ रहा है....दूसरी भाषाओँ और दूसरे प्रदेशों में शादियाँ हो रही हैं..काश ये हवा फैशन की तरह ही सही धीरे धीरे...छोटे शहरों, कस्बों और गाँवों में भी फ़ैल जाए.
ReplyDeletevicharniya aalekh.
ReplyDeleteआपकी रचना की सोच से सहमत, जाति-प्रथा के रूढ़ अर्थ में।
ReplyDeleteअसहमत, "जाति" समाप्त करने के अर्थ में।
शादी होना ही एकमात्र ध्येय नहीं है जाति का, बहुत से धार्मिक कर्मकाण्ड भी जाति से जुड़े हैं, हिन्दू सनातन पद्धति में। एक प्रकार से यह हिन्दू धर्म को ही त्याग देने का आह्वान न बने, इस अर्थ में जाति चलते रहना सार्थक भी है।
यह निष्कर्ष आपका अपना है कि अन्तर्जातीय विवाह से उत्पन्न संतति की कोई जाति नहीं होती। ऐसा न तो हिन्दू दर्म में है, न संहिताओं में। पुरुष-प्रधान गोत्र व्यवस्था में संतान का गोत्र और जाति वही मानी जाती है जो पिता की होती है, और वह भी पालनकर्ता पिता की, जो औरस पिता हो यह अनिवार्य नहीं है।
बिना किसी धर्म या परम्परा को पूरी तरह जाने उस पर आक्षेप तो लगाया जा सकता है, मगर उसकी वैधता पर प्रश्न बना रहता है। ऐसा करना लोकाचार-सम्मत भी नहीं है।
धर्म-निरपेक्ष होना अलग बात है और अधर्मी होना अलग। इसी तरह से किसी धर्म-विशेष का अनुयायी न होना नास्तिक नहीं बनाता, ईश्वर की सत्ता में आस्था न होना बनाता है।
ब-हर-हाल आपकी अभिव्यक्ति अच्छी है, लेख भी, उसके लिए बधाई।
पहले जब कोई जाति पूछता था तो मैं कहता था " "जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिये ज्ञान "
ReplyDeleteफिर जब कविता लिखनी शुरू के तो कहा
" जाति न पूछो कवि की.....
और अब कहता हूँ ..
" जाति न पूछो ब्लॉगर की ..
बहरहाल इस पोस्ट के बहाने बहुत से लोगों के इस विषय में विचार जानने को मिले । धन्यवाद ।
weldone gret!! fantastic write up
ReplyDeleteइस संसार को कैसे एक किया जाय इस पर मैंने एक नवीतम ब्लॉग में लेख पढ़ा था. लेखक पोखरा, नेपाल में प्राध्यापक हैं.
ReplyDeleteइस ब्लॉग में और डा० साहब के ब्लॉग में प्रकाशित जातिगत समस्याओं से भी आगे जाकर उस लेख में संसार को एक करने के तरीके बताये गए हैं..
मैं समझता हूँ कि सोंच उतनी व्यापक हो तो बात बने...
ब्लॉग का लिंक दे रहा हूँ
http://oneworld-prem.blogspot.com/2009/12/unite-world.html
...दरअसल हम लकीर के फ़कीर हो कर जीने में अधिक सुविधा महसूस करते हैं. समाज चलने के लिए व्यवस्था अनिवार्य है. जिस समय समाज ने ये नियम बनाये उस समय इसकी आवश्यकता थी ...मगर समय, काल, परिस्थिति के अनुसार इसमें वैज्ञानिक ढंग से उत्तोरोत्तर सुधार करते रहना चाहिए. नेता और धर्म के ठेकेदार अपने स्वार्थों के कारण ऐसा होने नहीं देते.
जाति आर्धारित गणना या राजनीति रिट्रोग्रेड गतिविधि है।
ReplyDeleteबेचैन आत्मा को मेरा हार्दिक धन्यवाद की उनको मेरा लेख पसंद आया.
ReplyDeleteये जाति का बुखार जो न करवाए।
ReplyDelete--------
क्या हमें ब्लॉग संरक्षक की ज़रूरत है?
नारीवाद के विरोध में खाप पंचायतों का वैज्ञानिक अस्त्र।
aapne sach hi likha hai jati ka bukhar jangaNa ke liye sabhi ko chadh hai. iske liye tike khoj ki awshyakta hai. prantu hamare scientist vdeshiyon ki nakal karte hai. isliy jab amerika ya japaan mei jati ka bhukhar failega to ve teeka bhi bana lenge aur phir hamare desh mein bhi uski marketing karlenge. tab ja kar ye bhukhar samapt hoga.
ReplyDeleteचर्चा लगभग खत्म हो ही चुकी है इसलिये मै ज्यादा न कहते हुये एक और चीज की तरफ़ ध्यान आकर्षित करना चाहूगा..
ReplyDeleteमेरा एक दोस्त भागलपुर से है.. गलती से या जानबूझकर, पता नही लेकिन हाईस्कूल की मार्कशीट पर उसका कोई सर नेम नही है..
कही भी कोई फ़ोर्म भरो, चाहे वो ओनलाईन हो या ओफ़लाईन, सर नेम का आप्शन हमेशा अनिवार्य रहता है.. मिडिल नेम आप्शनल रहता है.. उस बेचारे को सरनेम के लिये इतनी मारामारी करनी पडी कि उसने एक तरीका अपना लिया था.. वो सर नेम वाली फ़ील्ड मे ’*’ लिखता था और उसका नाम बन गया था ’फ़लाना *’ :)
हमारी ओनलाईन वेबसाईट्स जो आधुनिकता की पर्याय बनी हुयी है, सबसे पहले उन्हे सर नेम को ओप्शनल रखना चाहिये...
aapne badi hi kavyatmakta se saja kar likha, padh kar man romanchit ho utha.
ReplyDeletenazar batu nale ko yadi aapne pahadon mein utarate hue gadhere ki tarah dekha hota jo doodh jaise dhwal pani ko undelta hai to aap use nazarbatu nahi kahte. shayad ese usi tarah pasand karti jaise badlon min bijli ki rekha chamkti hai.
Brsha ki intzar mein ham bhi hain aur bhigne ko man aatur hai.