कहाँ कहाँ खेली, कैसी कैसी तो होली
जैसी हमने खेली वैसी ही हो ली होली
जहाँ जहाँ गए हम संग हो ली होली
तेरी, मेरी, उसकी हम सबकी होली।
होली का दिन आता है तो उसके कुछ पहले से व उसके कुछ बाद तक मुझे अलग अलग जगहों पर खेली होली की याद आती है। हम लोग हैं बंजारे, हर दो तीन वर्ष व कभी कभी इससे भी कम समय में अपना सामान बाँधकर नई जगह को अपना घर कहने को जब तब चल पड़ते हैं। न मुझे इसमें अधिक परेशानी हुई और न नई जगह जाकर स्थापित होने में। यह भी कह सकते हैं कि हम गमले में लगे जंगली पेड़ हैं, अपने स्वभाव रूपी गमले में रोपित, पल्लवित हैं और चाहे जहाँ हमें गमले सहित पहुँचाया जा सकता है। बस गमला बदलने को मत कहिए तो कोई परेशानी नहीं। थोड़ी बहुत मिट्टी बदलने में कोई परेशानी नहीं, बस मूलभूत गमले व उसकी मिट्टी का स्वभाव वही रहे तो।
खैर, तो जब मैं छोटी बच्ची थी तो आज के हरियाणा व उस समय के पंजाब में रहती थी। जैसा कि लगभग सदा जहाँ मैं रहती हूँ उसकी विशेषता होती है तो यह जगह भी छोटी थी। आज जहाँ हूँ उतनी भी नहीं परन्तु छोटी ही थी। मेरे अनुसार बड़ी जगह वह जहाँ एक से अधिक दुकान हो, धोबी हो, स्कूल हो। एक हो तो छोटी। यदि बाथरूम स्लिपर्स उपलब्ध हों तो काफी बड़ी। यदि बाहर पहने जाने वाली चप्पलें भी मिल जाएँ तो ... तो शायद अपना गमला वहाँ नहीं भेजा जाता। इस छोटे बड़े की परिभाषा में शहर व कस्बे या गाँव नहीं आते, केवल हमारी बस्तियाँ या कॉलोनियाँ ही आती हैं। तो यदि १ से १० के स्केल में देखें तो यह १० पर आता था। जहाँ अभी रहती हूँ वह १ में आता है।
वहाँ होली बहुत उत्साह से मनाई जाती थी। वैसे भी जहाँ मनोरंजन के अन्य साधन न हों उत्साह ही सबसे बड़ा साधन बन जाता है। होली की पूर्व संध्या होली दहन किया जाता था। तभी अगले दिन कहाँ कैसे मस्ती होगी का कर्यक्रम बन जाता था। वैसे यह निर्णय अधिक कठिन भी नहीं था। होली का जुलूस मंदिर से आरम्भ होकर हर घर जाता था। पुरुष हर गली मोहल्ले में होते हुए आते थे सो स्त्रियाँ उसके अनुसार अपनी मस्ती कर लेती थीं। जैसे हमारे मोहल्ले में यदि १२ बजे पहुँचता तो उससे पहले ही रंग खेल लेती थीं। उनके पहुँचने तक मिठाई आदि की थालियाँ तैयार रहती। बच्चे तो खैर जब चाहे जलूस में, जब चाहे अपने अपने गुटों में रंग खेलते थे। यह बात और है कि अपने गुट को केवल बच्चों की उँचाई व चीखने चिल्लाने से ही पहचाना जा सकता था। लगभग सब बच्चों के चेहरे तो एक जैसे ही लगते थे।
पूरी कॉलोनी में यदि किसी नई भाभी का प्रवेश हुआ हो तो उनकी खैर नहीं होती थी। बचने का हर प्रयत्न बेकार जाता था। जब तक वे रंग न दी जाएँ शेष सब कार्यक्रम स्थगित रहते थे। खिड़की दरवाजे बंद होने पर बाल्टियों से रंगीन या सादा पानी दरवाजे के नीचे से उड़ेला जाता था। सब अपनी अपनी आस्था अनुसार पाँच मिनट से आधे घंटे के भीतर हथियार डाल देती थीं। फिर होली के सनातन, अचूक, विशेष सिद्धांत 'एक बार जब रंगे जा चुके तो अब कोई और क्या बिगाड़ लेगा' अनुसार वे भी हमारी सेना में या तो सम्मिलित हो जाती या जमकर रंग खेलतीं। प्रेम पूर्वक मिठाई नमकीन खिलातीं और सदा के लिए हमारे मित्रों में गिनी जातीं। धर्म विधर्म का लफड़ा तब हमें पता नहीं था। दो प्रकार के पुरुष देखे थे एक पगड़ी व दाढ़ी मूंछ धारी चाचाजी दूसरे पगड़ी व दाढ़ी विहीन चाचाजी। कुछ बहुत बड़ी उम्र के चाचाजी लोग बिना दाढ़ी मूँछ के भी भांति भांति की पगड़ियों से सुशोभित रहते थे। बच्चे तो केवल बच्चे या बच्चियाँ होते थे।
लगभग बीस मिनट के अंदर किसी को रंगने में आनन्द देने लायक चेहरे, हाथ पैरों में रंगने योग्य कोई स्थान नहीं बचता था । तब पानी से खेलने व दौड़ भाग करने, पकड़ने का काम रह जाता था। आलू में सुबह सुबह होली, गधा आदि लिखा जा चुका होता था। यदि किसी के कपड़ों में स्थान बचा हो तो ये ठप्पे लगा देते थे। इस सारे कार्यक्रम में सबसे महत्वपूर्ण होता था अपने रंगों को बचाकर अपने कब्जे में रखे रखने की कोशिश। प्रायः शत्रु पक्ष इसे छीनकर हमें ही लगाने के चक्कर में लगा रहता था। तब पॉलीथीन का न होना बहुत बड़ी समस्या था। होता कैसे, ऐसी वस्तु अपने देश में तो तब तक नहीं आई थी। रंग छोटी छोटी शीशियों में संभाले जाते थे। लड़कों को तो सुविधा थी कि अपनी पैन्ट की जैब में रख लें, हमें किसी थैले का ही सहारा होता था, जिसका छिन जाना कठिन नहीं होता था। बड़ी बड़ी पीतल या टिन की पिचकारियाँ होती थीं जो हर साल किसी पेटी में से खोजकर निकाली चमकाई जाती थीं। शायद ये भी पुश्तैनी जायदाद की तरह पीढ़ी दर पीढ़ी चलती थीं। शायद छाता ठीक करने वाले की तरह पिचकारी ठीक करने वाला भी होली से ठीक पहले कुकुरमुत्ते की तरह पैदा होते थे। याद नहीं। परन्तु यह तो पता है कि पिचकारियाँ हर वर्ष खरीदीं नहीं जाती थीं।
एक होली में न जाने कैसे दो पक्षों ने कब अलिखित समझौता कर लिया कि गोबर का भरपूर उपयोग किया जाएगा। वह वर्ष इतिहास (हमारे मस्तिष्क में जो इतिहास लिखा जाता है ) में गोबर होली वर्ष के रूप में दर्ज है। सारे बच्चे गोबरमय हो गए थे। गोबर घुला पानी यहाँ से वहाँ उड़ेला जा रहा था। पिचकारियों में भरा जा रहा था। याद नहीं कि एक शत्रु पक्ष छत पर कैसे पहुँच गया था। फिर धरती से छत की ओर व छत से धरती की ओर हमला हो रहा था। शत्रु पक्ष को गुरुत्वाकर्षण का लाभ मिल रहा था तो हमें अपनी रसद की भरपाई का। अन्ततः शत्रु पक्ष के पास गोबर समाप्त हो गया। एक छुटके से सैनिक को गोबर की रसद लाने के लिए नीचे उतारा गया। नन्हे सिपाही को गोबर के ढेर का डर दिखाकर उसे भी अपने दल में सम्मिलित कर लिया गया। यह आयाराम गयाराम के जमाने से पहले की बात है। शायद गयाराम को आयाराम बनाने में गोबर होली का भी सहयोग रहा है।
खैर, फिर शत्रु पक्ष पानी ही फेंकता रहा। जब हमें लगा कि उन्हें नीचे उतारा जाए तो पानी का वाल्व बन्द कर दिया। कुछ ही मिनट में शत्रु नीचे आ गए और दो दल वैसे ही एक हो गए जैसे दो पानी की बून्दें एक हो जाती हैं।
अब जब इस होली को याद करती हूँ तो इसे यकयक होली के रूप में याद करती हूँ। गोबर! छी! परन्तु शायद छह वर्ष की उम्र में गोबर उतना छी नहीं होता जितना कि सम्भावनाओं की खान होता है।
पिछले वर्ष यह लेख शुरू किया गया था शायद अगले वर्ष भी जारी रहे। पिछले वर्ष मैं गुजरात की एक लगभग सौ घरों वाली बस्ती में रहती थी। इस वर्ष नवीं मुम्बई में रहती हूँ। पिछले वर्ष खिड़की से बाहर देखने पर मोर, नील गाय, हिरन, हरियाली, ट्रैक्टर, पड़ोस के खेत में होती बुवाई कटाई, गेहूँ, मूँगफली आदि निकालने का हार्वेस्टर आदि दिखते थे, इस वर्ष बसें, कारें धुँआ आदि दिखते हैं। दिखने को तो पहाड़, खाड़ी, खाड़ी के ऊपर अस्त होता सूरज (मेरे कम्प्यूटर के पास वाली खिड़की से भी), पहाड़ से उदय होता सूरज (मेरी रसोई की बालकनी से),एक नाला, नाले पर विचरण करते सफेद पक्षी, बहुत सारे जिद्दी कबूतर, सोसायटी का बगीचा भी दिखते हैं। सोचा जाए तो इन दोनों परिस्थितियों में धरती आकाश का अन्तर है किन्तु मुझे कोई विशेष अन्तर नहीं महसूस होता। यहाँ या वहाँ दोनों जगह स्वनिर्मित पिंजरे में, स्वनिर्मित सुख या दुख हैं। देखती हूँ होली कैसी रहेगी। शायद बिटिया व राजस्थानी पुत्रीवर (जमाता किन्तु 'कुँवर सा' नहीं) के साथ पहली बार इस नए शहर में होली खेलना भी यादगार बन जाए।
होली की शुभकामनाओं सहित,
घुघूती बासूती
Friday, February 26, 2010
वह गोबर होली वर्ष था !..............................................घुघूती बासूती
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बढ़िया भावपूर्ण संस्मरण . . आपको भी होली पर्व की शुभकामनाये
ReplyDeleteशुभ होली.नये हेडर को भी.
ReplyDeleteआपकी होली ऐसी ही बढ़िया मनती रहें.
ReplyDeleteआपके होली के संस्मरण बहुत भावमय हैं आज कल तो बहुत कुछ बदल गया है और लगता है शहरों के कुछ बच्चों ने तो शायद गोबर देखा भी न हो,खेलना तो दूर की बात। आपकी होली खुशी से मनती रहे शुभकामनायें बेटी आ रही है उसे भी बहुत बहुत आशीर्वाद्
ReplyDeleteअब गाँव में भी ट्रैक्टरों के चलते गोबर दुर्लभ है और गोबर होली भी -बढियां संस्मरण!
ReplyDeleteसुंदर संस्मरण.
ReplyDeleteहोली का आनंद तो बच्चे ही ज्यादा उठाते हैं..आपका संस्मरण पढ़कर हम अपने बचपन की यादों में खो गए
बचपन भी कितना हसीं होता होता है न! उसपर से गोबर वाली होली में रंगे बचपन का तो कहना ही क्या!
गोबर-कीचड़ होली की कई यादें हैं। बढ़िया संस्मरण।
ReplyDeleteअतीत के पल कितनें यादगार होते हैं,इस पोस्ट ने बता दिया.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लगी आपकी पोस्ट.
बढिया संस्मरण .. मुंबई की होली के विवरण का भी इंतजार रहेगा !!
ReplyDeleteबढ़िया संस्मरण।
ReplyDeleteहोली की शुभकामनाए !!
सादर
बहुत सुंदर संस्मरण.
ReplyDeleteरामराम.
संस्मरण बहुत अच्छा है!
ReplyDeleteएक खूबसूरत पर्व जिस पर आपका संस्मरण गुज़रे ज़माने याद दिला गया :)
ReplyDeleteबंजारे शव्द पढ कर मुझे भी अपना बचपन याद आ गया, मेरा बचपन भी भारत के अलग अलग शहरो ओर राज्यो मै बीता जिस का मुझे बहुत नुकसान हुया...लेकिन जहां भी रहे दोस्त ओर मित्र मिल जाते थे, फ़िर होली का हुदडग बहुत जोर शोर से मनाते थे, ओर हर जगह अलग अलग
ReplyDeleteबहुत सुंदर लगी आप की यह पोस्ट होली के रंग मै डुबी हुयी
आप सभी को
ReplyDeleteहोली की भी ,
बहुत बहुत शुभ कामनाएं घुघूती जी
यादगार संस्मरण रहे
आप पुत्री व पुत्रीवर के संग
नवी मुम्बई में
सानद होली खेलिएगा
स्नेह,
- लावण्या
बढ़िया संस्मरण रहा..अब आप बम्बई में इस होली को तरसें और हम कनाडा में...
ReplyDeleteआप एवं आपके परिवार को होली मुबारक.
गोबर कीचड़ की बदबू यहाँ तक आ रही है ....:):)
ReplyDeleteहोली की बहुत शुभकामनायें ....!!
एक खूबसूरत संस्मरण। प्रसंसनीय।
ReplyDeleteहोली की शुभकामनाएं।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
घुघूती बासूती जी सर्वप्रथम होली की हार्दिक शुभकामनाये ! वैसे नवी मुंबई भी वातावरण के हिसाब से मुंबई के मुकाबले बहुत अच्छी जगह है, और सच कहूँ तो दिल्ली से बहुत बेहतर है ! मैं उस इलाके को करीब से जानता हूँ क्योंकि नेरुल में आर्मी हाउसिंग सोसाइटी में रहा हूँ कुछ वक्त तक !
ReplyDeleteबढ़िया होली संस्मरण । आनंद आ गया ।
ReplyDeleteआपको और आपके परिवार को होली की हार्दिक बधाई और शुभकामनायें।
बहुत ही बेहतरीन दिल को छू लेंने वाला संस्मरण लगा , आपको होली की बहुत-बहुत बधाई एवं शुभकानायें ।
ReplyDeleteबढ़िया भावपूर्ण संस्मरण!
ReplyDeleteक्या बात है, गोबर वाली होली
ReplyDeleteबांध के रखता है आपका लेखन, एक पंक्ति बहुत सुन्दर लगी
वैसे भी जहाँ मनोरंजन के अन्य साधन न हों उत्साह ही सबसे बड़ा साधन बन जाता है।
It's great description .highly touchy to heart.great...
ReplyDeletewith respect
बीते दिनो को इस तरह याद करना बहुत अच्छा लगता है ।
ReplyDeletehmmmmmm....yaadon vali behareen post .....jiya bharmaa gayi...kuchh hamko bhi yaad dila gayi...ghughuti ji aap to hamen ghughuni khila gayi....!!!
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