कबसे मन गा रहा था....
वो सुबह कभी तो आएगी
जब प्लास्टर उतारा जाएगा
जब बाँह को धोया जाएगा।
चालीस दिन से हर रात दिनों की गिनती करते बीती है। कितने बीत गए, कितने बचे हैं। एक बाँह को ऊपर से आठ अंगुल और नीचे से केवल उँगलियाँ छोड़कर यदि प्लास्टर में जकड़ दिया गया हो और वह भी ऐसे कि कोहनी नीचे और ऊपर की बाँह के बीच ९० डिग्री का कोण बनाती हो तो कैसे सोया जाएगा, कैसे लेटा, बैठा या आराम किया जाएगा?
यदि शरीर के किसी अंग का महत्व समझना हो तो कुछ दिन उसका उपयोग निषेध भर कर दिया जाए तो बात बन जाती है। यदि विकलांगों की समस्या समझनी हो या उनसे सम्बन्धित विभाग में काम करना हो तब भी कुछ दिन के लिए बारी बारी से शरीर के किसी अंग का उपयोग बाधित कर देना चाहिए। अपने आप व्यक्ति अधिक संवेदनशील हो जाएगा। फिर वह स्वप्न में भी विकलांग सहायता के लिए दफ्तर ऐसी जगह नहीं बनाएगा जहाँ सीढ़ी चढ़नी पड़े। या यदि उसे आँख पर पट्टी बाँध हमारी सड़कों या नाम मात्र के फुटपाथों पर चलवाया जाए तो सारे गड्ढे बड़ी फुर्ती से भरवा देगा।
मेरे मित्र इस बात को स्वीकार करते हैं कि मैं स्वयं को अन्य के स्थान पर रखकर सोचने में सक्षम हूँ। ( what is also known as putting yourself in someone elses shoes (and being politically correct), also putting yourself in someone elses sandals!) परन्तु फिर भी मैं यह मानती हूँ कि किसी अन्य के जूतों में अपनी कल्पना करना और उसके काटने वाले जूते पहनकर मीलों चलना या महीनों जीने में बहुत अन्तर है, आकाश और पाताल का अन्तर है।
मुझे याद है कि जब बार बार जोड़ों की तकलीफ या, स्लिप डिस्क आदि की समस्या से मुझे अपने निकट के कस्बे के हड्डियों के डॉक्टर के दवाखाने में चार सीढ़ियाँ चढ़कर जाना पड़ता था तो मैं सदा विस्मित होती थी कि उन्होंने ऐसी व्यवस्था क्यों की है। यदि डॉक्टर की खुद की पैर की हड्डी टूट जाती या उनके घुटनों में कष्ट हो जाता तो शायद वे कुछ और व्यवस्था अवश्य कर देते। जब तक कष्ट किसी अन्य का होता है हम समस्या को उतना बड़ा नहीं समझते, वास्तविकता से छोटा समझते हैं। जब अपना होता है तो वास्तविकता से बड़ा समझते हैं। शायद यही कारण है कि दलितों के कष्ट को समझने के लिए बाबा साहेब अम्बेडकर की जरूरत पड़ती है और स्त्रियों के कष्ट समझने के लिए किसी पीड़ित स्त्री जैसे भँवरी देवी या मुख्तारन माई की। शायद इसीलिए चाहे लोग लाख कहते रहे कि गाँधी जी को गरीब रखने में सरकार को बहुत खर्चा करना पड़ रहा है,गाँधी जी ने गरीब रहना ही उचित समझा।
खैर, मेरी प्लास्टर चढ़ी बाँह ने मुझे काफी कुछ सिखाया। बहुत सी वे परेशानियाँ जो दो बाँह वाला कभी नहीं समझ सकता वे मैं समझ पाई। हम सब समझ सकते हैं कि एक हाथ से बोतल का ढक्कन खोलना, डब्बा खोलना, भारी पतीला उठाना, स्नान करना, बर्तन साफ करना, सब्जी काटना आदि कठिन होता होगा। जिस बाँह पर प्लास्टर चढ़ा है वह तो धुल नहीं सकती किन्तु जिसपर नहीं चढ़ा है वह भी कैसे ठीक से धुलेगी? उसे किस हाथ से रगड़ेंगे? जिस बाँह पर प्लास्टर चढ़ा है वह तो खुजलाई नहीं जा सकती किन्तु जिसपर नहीं चढ़ा है वह भी कैसे खुजलाई जाएगी? उसे किस हाथ से खुजलाओगे? उसपर त्वचा सूख भी रही हो तो कैसे क्रीम,मॉइस्चराइज़र लगाओगे। इसके लिए एक बेहद साफ और धुले पाँव का प्रयोग किया जा सकता है। फ्रिज़ को एक हाथ से ही खोलकर उसी हाथ में पकड़ा पतीला अंदर कैसे रखोगे?
एक हाथ से टाइपिंग की जा सकती है, अंग्रेजी की तो बहुत आराम से। हाँ, कैपिटल लिखने के लिए कैप्स लॉक दबाना व हटाना पड़ेगा। किन्तु जो हिन्दी ब्लॉगिंग के मरीज हों वे क्या करें? वे भी रास्ता ढूँढ लेते हैं। उन्हें न केवल बार बार शिफ्ट की आवश्यकता होती है जिसके लिए कैप्स लॉक का उपयोग कर सकते हैं, उन्हें तो स्पैशियल करेक्टर्स वाली नम्बरों वाली बार की भी आवश्यकता होती है जहाँ कैप्स लॉक काम नहीं करता। मैं तख्ती पर टाइप करती हूँ। यहाँ 'हूँ' के लिए h u z(shift position) चाहिए। आँखें के लिए 4(shift)z(shift)k(shift)ez,एक ही हाथ की उँगलियों से साथ में शिफ्ट और उससे काफी दूर का कोई अक्षर दबाना काफी कठिन होता है।
ऐसे में मैं एक उँगली से टाइप करने वाली, एक साथ दो या तीन उँगलियों से कभी बाईं तरफ का उपयोग करती हूँ तो कभी दाँई तरफके शिफ्ट का। दायां या बाँया इस बात पर निर्भर करता है कि अक्षर किस तरफ के शिफ्ट के निकट है। परन्तु सबसे कठिन निर्णय 'भी' का होता है। b लगभग बीचोंबीच होता है। तो b(shift)i (shift)या 'भाई' में b(shift)a6(shift) में उँगलियों की अधिक ही कसरत होती है।
बहुत से काम सीखते सीखते आ गए किन्तु जहाँ मैं हार गई वह है चोटी बनाना। मैं एक हाथ से स्नान कर लेती हूँ, सिर धो लेती हूँ, कपड़े पहन लेती हूँ, बाल सुलझा लेती हूँ किन्तु चोटी से हार गई। यहाँ तक कि मैं साबुत हाथ के नाखून भी बिस्तरे पर नेल कटर रख पैर से दबाकर काट लेती हूँ। खैर, बाल तो विवश होने पर कटवाए भी जा सकते हैं।
शायद बारह घंटे बाद मैं इस प्लास्टर से मुक्त होऊँगी और अपनी सबसे बड़ी समस्या प्लास्टर ढकी जगह पर खुजली से छुटकारा पा जाऊँगी। किन्तु मैंने इस दुर्घटना से बहुत कुछ सीखा है। इसे भुलाऊँगी नहीं।
आशा है कि जल्दी ही दोनों हाथ टाइपिंग के लिए उपयोग करूँगी।
घुघूती बासूती
Friday, January 29, 2010
आज है इकतालिसवाँ दिन!.....................घुघूती बासूती
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
ईश्वर करे हाथ बिलकुल सही कार्य करने लगे !शुभकामनायें !!
ReplyDeleteओह, कैसे-कितने मार्मिक दुखभरे दिवस, और अकुलायी सांझें.
ReplyDeleteभगवान से दूआ है कि आप जल्द से जल्द ठिक हो जायें ।
ReplyDeleteshririk viklangta ke dard ko aapne anterman se mhsus kar us par apne atmvishvas se vijay pai hai .ishvar se prarthna hai ki aap sheghra svsth ho .
ReplyDeleteहर चीज नया कुछ सिखा ही जाती है.
ReplyDeleteआप तो जल्दी दुरुस्त हों, प्लास्टर हटे और फटाफट चोटी बनना शुरु हो... :)
अनेक मंगलकामनाएँ.
आप जल्द स्वस्थ हो जाएं .. शुभकामनाएं !!
ReplyDeleteare!!!!
ReplyDeleteaapne bataya nai kya hua tha...
maloomhi nai mujhe..
kaamna hai ki aap jald hi ekdam se fit-faathi jayen, pahle jaisi
इस अवस्था में भी आप इतना मेहनत कर लेती हैं, आपकी हिम्मत और इच्छाशक्ति की दाद देनी पड़ेगी.
ReplyDeleteशुभकामनये आप की बांह ठीक हो जाये, शायद अब तक पलास्तर भी उतर गया होगा, मेरे तो ६ महीने के लिये लगा था.... मै समझता हुं आप की यह तकलीफ़.
ReplyDeleteजल्द से ठीक हो जाये.
ootar gaya kya?? ummid hai ab bahdiya hoga pahle se.. :)
ReplyDeleteकुछ ही लोग होते हैं, जो दूसरे के स्थान पर खुद को रखकर सोच सकते हैं और ऐसे ही लोग संवेदनशील होते हैं समाज के प्रति. अपने दुःख से किस तरह आपने दूसरों के दुःख का अनुभव किया है, इसी बात से आपकी यह पोस्ट लाजवाब हो गयी है. ईश्वर से प्रार्थना है कि आपका यह कष्ट जल्दी से दूर हो.
ReplyDeleteऔर हाँ, आप हिन्दी लिखने के लिये बारहा पैड का प्रयोग क्यों नहीं करती हैं. मैं तो उसमें संस्कृत भी लिख लेती हूँ.
मुक्ति जी, तख्ती का अपना ही आराम है। इसमें कम की दबाने से अधिक टाइप किया जा सकता है। जैसे कलपना लिखने के लिए केवल klpna जबकि बाराहा में शायद kalapanaa और कल्पना के लिए klxpna, बाराहा में kalpanaa. औरत के लिए 0(shift)rt जबकि बाराहा में शायद aurat.सो अब मुझे तख्ती ही बेहद पसन्द है।
ReplyDeleteरही बात हाथ की तो उसे तो देर सबेर ठीक होना ही है।
घुघूती बासूती
जल्दी ही सब कुछ ठीक हो जायेगा!
ReplyDeleteशुभकामनाएँ!
हमारी यही कामना है कि जल्दी से जल्दी आप ठीक हो जायें!
ReplyDelete"जाके पैर ना फटी बिंवाई सो का जाने पीर पराई" कहावत मुद्दतों से चलन में है जरुर किसी भुक्तभोगी नें गढ़ी होगी ! आपको कष्ट तो नि:संदेह हुआ होगा पर प्रतिसाद स्वरुप दैहिक विकलांगता के प्रति एक 'नया नज़रिया' विकसित हुआ / आप खुद को 'ज्यादा संवेदनशील' महसूस कर पा रही हैं ये क्या कम बड़ी बात है ?
ReplyDeleteहाँ एक बात समझ में नहीं आई कि आपके 'अर्धांगना' उर्फ़ पतिदेव उर्फ़ घुघूत जी नें आपके नाखून क्यों नहीं काटे ? ...और चोटी क्यों नहीं गूंथी ? :)
बहुत बढ़िया पोस्ट.
ReplyDeleteआपने बिल्कुल सही लिखा है. जब खुद पर बीतती है तब पता चलता है तमाम बातों का महत्व. पिछले तीन-चार महीनों से ऐसा ही कुछ मैं भी झेल रहा हूँ. कभी ठीक से न चल पाने की समस्या तो कभी पीठ और कन्धों का दर्द. न जाने कितने दिन बीते बिस्तर पर पड़े-पड़े. शरीर के अंगों का महत्व समझ में आता है.
आप जल्द ही स्वस्थ हो जाएँ यही कामना है. बहुत दिनों के बाद आपका ब्लॉग मेरे कंप्यूटर पर खोल पाया.
"जहाँ कैप्स लॉक काम नहीं करता। मैं तख्ती पर टाइप करती हूँ। यहाँ 'हूँ' के लिए h u z(shift position) चाहिए। आँखें के लिए 4(shift)z(shift)k(shift)ez,एक ही हाथ की उँगलियों से साथ में शिफ्ट और उससे काफी दूर का कोई अक्षर दबाना काफी कठिन होता है। "
ReplyDeleteऔर आपने फिर भी यह सब किया, सच में तरीफेकाबिल ! शीघ्र बांह लाभ की शुभकामना !
आपके हौंसले को सलाम...आप जल्द इस प्लास्टर से मुक्त हों ये कामना करता हूँ...
ReplyDeleteनीरज
घुघूताजी को अभी तक चोटी बनानी नहीं आई? :)
ReplyDeleteमुझे भी क बार दायें हाथ से काम निकालना पड़ा था, अभ्यास से सरल हो गया था.
प्लास्टर की उतरवाई नजदीक है, मुबारक.
इतने कष्ट में ब्लाग लिखना और अपने अनुभव बांटने के लिए आभार। ईश्वर करे आप का जब प्लास्टर कटे तो दोनो हाथ पहले से भी बेहतर ढंग से काम कर सकें।
ReplyDeleteएक हाँथ से टाइप करने की बात सोच रहा हूँ, फिर स्वतः ही झुक जा रहा है सिर आपके सामने !
ReplyDeleteआँखें आशंकित थीं, हाथों ने कर दिखाया.
ReplyDeleteget well soon
ईश्वर से प्रार्थना है कि आप जल्दी से जल्दी ठीक हों और हाथ पूर्ववत स्वस्थ रूप से कार्य करे... लेकिन आश्चर्य कि इतनी तकलीफ में भी आप ब्लोगिंग करती रहीं...
ReplyDeleteआपके ज़ज्बे के आगे नतमस्तक हूँ... वैसे डॉक्टर ने हिदायत दी ही होगी लेकिन मैं भी कहता हूँ कि अभी १ हफ्ते भारी समान ना उठायें ना ही पहले की तरह इस्तेमाल करें...
जय हिंद...
आपको पढ़ कर ही लगता है आप एक जीवट महिला हैं...
ReplyDeleteआज पता भी चल गया....ब्लागगिंग क्या चीज़ है आप कुछ भी कर सकने में सक्षम हैं..
हाँ लेकिन पहले बता देतीं तो हम सारे समय आपके साथ होते....
शुक्र है आपने ब्लागगिंग नहीं छोड़ा ...इसने ना जाने कितनी बार ...आपके प्लास्टर वाले हाथ की खुजली से आपका ध्यान हटाया होगा...:):)
प्रार्थना है आप जल्द से जल्द अच्छी हो कर ब्लागिंग मैदान में दोनों हाथों के साथ आ जाएँ..
आभार...
क्या जज्बा है!
ReplyDeleteइस पोस्ट से आपके प्रति इज्जत और आदर में इजाफा हुआ है।
baap re baap....aapkee himmat se bahut kuchh seekhne ka avsar mila ..get well soon...
ReplyDeleteव्यापक संवेदना वाली पोस्ट! शीघ्र स्वस्थ होने की शुभकामनायें।
ReplyDeleteमेरी तरफ से भी शुभकामनायें..
ReplyDeleteआप घुघुती बासूती हैं ...........और घुघुती बासूती हैं ...कोई दूसरा ये नहीं हो सकता ...जल्दी स्वस्थ हों ये कामना है
ReplyDeleteअजय कुमार झा
प्लास्टर की कैद से मुक्त होने की बधाई ।
ReplyDeleteलगातार एक्सेरसाइज़ करती रहें .....
ReplyDeleteसंवेदनशीलता के कम होने का अर्थ है मानवीयता का कम होना. आपका आलेख महत्त्वपूर्ण है; जिस तरह से आपने अपनी बात कही है, वह सचमुच सीधे असर करती है. आप के सभी पोस्ट्स पठनीय होते हैं. आपके शीघ्र स्वस्थ होने की कामना करताहूँ.
ReplyDeleteअबतो प्लास्टर खुल ही गया होगा. सही में कितना सुखद रहा होगा वह क्षण. बहुत दिनों से हालचाल पता नहीं था.इधर भी अब कुछ कुछ ठीक हो चला है. हम घर से बंधे रहने के लिए वाध्य ही हैं. भगवान् से प्रार्थना है की आप का हाथ पूर्व वत काम करने लगे.
ReplyDeleteयह तकलीफ मेरी माँ ने भी झेली थी. पैर में प्लास्टर लगा था और पूरे छ: महीने बिना करवँट लिए सीधे लेटना पड़ा था उन्हे... आप जल्द स्वस्थ हो जाएँ यही कामना है.
ReplyDeleteआज बहुत ढूंढ कर आपकी यह पोस्ट निकाली.३ अक्टूबर को मेरे भी हाँथ में फ्राक्चर हो गया. आपकी लिखी एक-एक बात अब और बेहतर समझ में आई.
ReplyDeleteआदर सहित,
मीनू खरे
शुभ कामनाओं व शीघ्र स्वास्थ्यलाभ की कामना के साथ एक बात लिखना चाह रहा हूँ. मैंने कल यहाँ एशियन तकनीकी संस्थान, बैंकॉक में एक चिड़िया देखी जिसके गले में भी छोटे छोटे बिन्दु थे और रंग रूप से घूघूती जैसी ही लग रही थी. तुरंत तो फोटो नहीं खींच पाया, पर आपका ब्लॉग सबसे पहले याद आया.
ReplyDeleteDr. Ranjan Maheshwari