Tuesday, January 19, 2010

हम फिर चूक गए..............घुघूती बासूती

ज्योति बसु ने अपना शरीर ४ अप्रैल २००४ को चिकित्सीय अनुसंधान के लिए दान कर दिया था। मरणोपरांत उनकी यह इच्छा पूरी की जा रही है। उनकी आँखों की कॉर्निया तो पहले ही निकाल ली गई हैं व नेत्रहीनों के काम आएँगी। आज उनका पार्थिव शरीर भी चिकित्सीय अनुसंधान के लिए सौंप दिया जाएगा।

ज्योति बसु का यह निर्णय बहुत सराहनीय है। उनकी उम्र व बीमारी के कारण उनके शरीर के विभिन्न अंग जैसे गुर्दे, कलेजा आदि तो किसी रोगी के लिए उपयोगी नहीं रहे किन्तु उनका शरीर अनुसंधान के काम आएगा।

जहाँ भारत के अन्य राजनेताओं की मृत्यु पर उनकी समाधियाँ बनती हैं और न जाने कितनी भूमि इस काम के लिए सदा के लिए उन पर अर्पित हो जाती है वहीं पर ज्योति बसु जैसे राजनेता, जो मरने के बाद भी एक तिनका भर भूमि अपने लिए बर्बाद न करवाकर, अपना शरीर तक मानवता के लिए दान कर गए।

मुझे लगता है कि यह एक सुअवसर था जब भारत में अंगदान, नेत्रदान व शरीरदान के महत्व की चर्चा लोगों से की जाती। मीडिया एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता था। समाचार पत्र इस विषय पर लिखते, टी वी में कुछ समय के लिए सिनेमा के महानायकों, भविष्यवाणियों, महामंत्रों, आस्थाओं आदि को विश्राम देकर ज्योति बसु ने जो किया वह क्यों किया और उससे कैसे मानव कल्याण होगा बताया जाता। चिकित्सकों को चर्चा के लिए बुलाया जाता। वे आँकड़े देते कि कितने रोगी गुर्दों की व नेत्रहीन आँखों की आस में बैठे हैं और कैसे हम ये उपयोगी अंग या तो जला देते हैं या गाड़ देते हैं, उनका दानकर हम अपने आप को व अपनी मानवता को नई ऊँचाइयाँ प्रदान कर सकते हैं। रोगियों व नेत्रहीनों का साक्षात्कार लिया जाता। जिनका जीवन अंगदान या नेत्रदान के कारण सुधरा है उनका साक्षात्कार दिखाया जाता। हमें बताया जाता कि हम किस पते पर कहाँ पत्र लिखकर या ई मेल करके अपने नेत्र या गुर्दे आदि के दान का प्रण ले सकते हैं। या फिर यह बताया जाता कि नेट पर कहाँ जाकर कोई फॉर्म डाउनलोड किया जा सकता है और भरकर कहाँ भेजा जा सकता है।

ऐसा अवसर बार बार नहीं आता। ज्योति बसु करोड़ों लोगों के नायक थे। उनका एक छोटा सा प्रतिशत भी यदि उनके प्रति अपनी श्रद्धा दर्शाते हुए शरीर दान जितना बड़ा नहीं तो नेत्रदान व अंगदान का ही प्रण ले लेता तो भारत में नेत्रहीनों को नेत्र मिल जाते, रोगियों को गुर्दे खरीदने जैसा अमानविक काम न करना पड़ता न ही अपने परिवार के किसी सदस्य का गुर्दा शल्य चिकित्सा द्वारा निकालकर लेना पड़ता। मुझे दुख है कि हम और हमारा मीडिया एक बार फिर ऐसे अवसर का उपयोग जन चेतना फैलाने के लिए करने से चूक गया।

मैं किसी अन्य नीति में ज्योति बसु से सहमत थी या नहीं किन्तु उनके इस निर्णय ने मेरे मन में उनका आदर बहुत बढ़ा दिया है। ज्योति बसु आपको मेरा लाल सलाम तो नहीं किन्तु प्रकृति के हर उस रंग का, जो जीवन का पर्याय है, बहुरंगी सलाम!

घुघूती बासूती

30 comments:

  1. आदर्श नेता को मेरा सलाम।

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  2. ज्योति दा को लाल सलाम या यूँ कहिए सारे सलाम दिल से

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  3. बिलकुल सही कहा लिखा आपने ..एक जागरूकता जो जगाई जा सकती थी वह चंद लफ़्ज़ों में ही ब्यान हुई ...

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  4. अच्छे काम की सराहना विचारों से ऊपर उठ कर की जानी चाहिए.
    हमारा बहूरंगी सलाम! :)

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  5. कुछ माह पहले ही हिन्दी राजस्थानी के प्रख्यात लेखक हरीश भादानी भी यह कर चुके थे। उन का शरीर मेडीकल कॉलेज बीकानेर को दे दिया गया। इस से बहुत पहले कानपुर के करंट बुक डिपो के स्वामी खेतान साहब यह कर चुके हैं। अनेक कर्मनिष्ट साम्यवादियों ने स्वेच्छा से यह संस्कार पद्धति स्वीकार कर ली है।

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  6. ...मुझे लगता है कि यह एक सुअवसर था जब भारत में अंगदान, नेत्रदान व शरीरदान के महत्व की चर्चा लोगों से की जाती। मीडिया एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता था।...

    ठीक कह रहीं हैं आप. मीडिया अभी भी ये काम कर सकता है अभी बहुत देर नहीं हुई है.

    स्व० ज्योति बासु का यह निर्णय अनुकरणीय व् वन्दनीय है.

    आपने इसे पोस्ट का विषय बनाया यह भी शानदार रहा.

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  7. यक़ीनन .सराहनीय है ....पर अक्सर रिश्तेदार ही भावुकता वश म्रत्यु की सूचना नहीं देते

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  8. ऐसा करने के लिए बहुत हिम्मत और सप्पोर्ट चाहिए..... नमन व श्रद्धांजलि.....

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  9. बहुत सही बात कही आपने...मीडिया ने एक अच्छा मौका गँवा दिया...जब किसी बड़े नेता से जुडी बात होती है,तब सब ध्यान से सुनते हैं और गुनते भी हैं....ऐसे चाहे जितने भाषण पिला लो...कोई असर नहीं होता..
    ज्योति बसु ने सचमुच बहुत ही सराहनीय और अनुकर्णीय काम किया है....सच,बहुरंगी सलाम,उन्हें

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  10. आपने सही कहा, जिस बात को जोर शोर से दुनियां को बताया जाना चाहिये था उस पर ध्यान ही नही दिया गया.

    आपका यह आलेख बहुत प्रसंशा योग्य है. कामरेड को नमन.

    रामराम.

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  11. .
    .
    .
    निश्चित तौर पर ज्योति दा की देहदान का यह फैसला एक सुअवसर था जब भारत में अंगदान, नेत्रदान व शरीरदान के महत्व की चर्चा लोगों से की जाती...
    पर मीडिया ने यह अवसर गंवा दिया...TRP जो नहीं मिलता

    सचमुच के नायक और महामानव ज्योति दा को लाल सलाम!

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  12. शरीर दान का कदम अनुकरणीय है. नमन!!

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  13. यकीनन यह अनुकरणीय है,लेकिन ऐसे मुद्दे मीडिया के लिए किसी काम के नहीं हैं.उन्हें आग लगाने वाले मुद्दों के तलाश होती है.
    बढियां लगी यह पोस्ट,विचारणीय.

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  14. रायपुर में एक संस्था है जिससे प्रोत्साहित हो कर कई लोगों ने देह दान किया है .
    अभी हाल ही में दैनिक छत्तीसगढ़ के संपादक सुनील माहेश्वरी के पिता जी ने भी अपना देह दान दिया .

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  15. यह एक सामान्य मगर अच्छा कार्य है , शारीरिक अंगों की प्रत्यारोपर के लिए बहुत आवश्यकता रहती है , एक मृत शरीर से कई जीवन सुखी हो सकते हैं ! मैंने अपने शरीर का दान अपोलो हॉस्पिटल में दान कर रखा है, ह्रदय से दुआ है कि वह सही समय पर सही जगह काम आये !!
    शुभकामनायें !!

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  16. वसन्तपन्चमी की शुभकामनायें.

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  17. बहुत सुंदर बात कही आप ने, आप का यह लेख ज्यादा से ज्यादा लोग पढे शायद आधे भी इस तरह चल पडे तो कितना अच्छा हो,हम पहल करेगे आप के लेख की

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  18. बहुत अच्छी बात उठाई है आपने. शायद इस बात को और अधिक प्रचारित-प्रसारित किया जा सकता था. लेकिन विनोद दुआ ने अपने कार्यक्रम "विनोद दुआ लाइव" में इस बात का उल्लेख करते हुये ज्योति बसु को श्रद्धांजलि दी थी.

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  19. निश्चय ही ज्योति दा का व्यक्तित्व अदभुत था ! मेरा भी सलाम !

    वसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनायें ।

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  20. निश्चय ही एक अच्छा काम जो मीडिया कर सकता था...उसने नही किया

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  21. वसंतोत्सव पर शुभकामना के साथ-
    आपका यह जनोपयोगी, ज्ञानवर्धक लेख पढ़कर मन खिन्न हो गया. हमारे देश में, जहाँ सत्य, अहिंसा, भाईचारा, पुण्य, आदर्श, नैतिकता, मानवता की दुहाइयां दी जाती हैं, वहां हम खुद इनका कितना पालन करते हैं, यह सर्वविदित है. यहाँ जिंदा इंसानों के गुर्दे निकाल लिए जाते हैं, आँखें छीन ली जाती हैं,जो मिले, जैसे भी मिले, हासिल कर लो की नीति चल रही है, फिर मरने के बाद कोई अपना शरीर, अंग क्यों दान करने लगा. पता नहीं, आँख, लीवर, गुर्दे किसी कुलीन को मिलें या अछूत को, ऐसी स्थिति में कैसा देहदान!
    आपने मीडिया की बात कही, उसे पैसा बनाना है, देहदान-अंग दान वाले कार्यक्रमों को प्रायोजित कौन करेगा? हम लूट में, छीनने में, कमजोर का हक जबरन दबा लेने में विश्वास रखते हैं, ये दान-वान की बातें हमारी समझ में आने की नहीं. एक नन्हा सा मुल्क श्रीलंका, नेत्रदान के मामले में हमसे करोड़ों कोस आगे है. फिर, यह चीजें मानवता से सम्बन्धित हैं, संस्कार से रिश्ता है इनका, ये दोनोने तो तो हम १००० वर्षों की गुलामी में में घोल कर पी चुके हैं, हजम हुए भी सदियाँ गुजरगईं.
    ज्योति बसु जमीनी नेता थे, उनके पिता के कपड़े पेरिस धुलने नहीं जाते थे. उनके पिता-माता में से कोई प्रधान मंत्री नहीं था. रथ पर सवारी करके राजनीति करना उन्हें मालूम ही नहीं था. उन्हें क्या पता कि मरने के बाद समाधि-स्मारक से देश को कितने फायदे हो सकते थे. वे पोलिटिशियन नहीं आम आदमी ही बने रहे और आम आदमी को देश में अब तक कोई अहमियत मिली है जो उन्हें मिलती? मीडिया क्यों उन पर टाइम स्लाट खर्च करे. इस देश की परम्परा चिता-मजार-समाधि-स्मारक हैं न कि देहदान. ऐसे लोगों के प्रति खामोशी ही बेहतर है. ठीक है ना!
    आप और मैं, पहली बार मिले हैं. मैं ने आपका काफी वक्त जाया किया, क्षमा चाहूँगा. लेकिन एक उम्मीद भी है कि अब यह सिलसिला जारी रहेगा.

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  22. rohit joshi gangolihat10:34 am

    aapki najar theek jagah gai...............wakai hum chook gaye.

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  23. कोई चूका हो तो चूके बहरहाल मैं अपनी आंखों के दान का संकल्प ले चुका हूं.

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  24. आदर्श नेता को मेरा सलाम।

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  25. इस तरह अंगदान करना सच में एक बेहतर और सरहानीय काम है। लेकिन, मैंने अपने परिवार में कुछ ऐसे भी केस देखे हैं जहाँ मरनेवाले ने तो अंगदान कर दिया लेकिन, घरवालों ने उसे उसके पहले ही जला दिया।

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  26. Bahut sahi kaha aapne...jyoti baboo ka yah prayaas sarahneey hi nahi vandneey hai...

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  27. गत वर्ष स्व० विष्णु प्रभाकर ने भी यही किया था और मीडिया से इसी तरह की चूक हुई थी. यह खबर अख़बारों के निचले कालमों में सिकुड़ कर रह गयी थी.

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  28. निश्चय ही एक अच्छा काम जो मीडिया कर सकता था...उसने नही किया

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