Sunday, December 13, 2009

मित्र की कीमत एक सीताफल!.........घुघूती बासूती

जी हाँ, वही सीताफल जो शरीफ़ा भी कहलाता है। इस शरीफ़े ने चार लड़कों की शराफ़त ही हर ली और एक की तो लगभग जान ही ले ली।

हुआ यूँ कि वनगाँव आश्रमशाला के १२ से १४ साल उम्र के पाँच लड़के जंगल में घूमने गए। वहाँ उन्हें एक सीताफल मिला जिसे तोड़कर वे अपने साथ ले आए। क्योंकि वह कच्चा था सो उसे पकाने के लिए डबका के सन्दूक में रख दिया गया। अगले दिन जब सन्दूक खोला गया तो फल गायब था। डबका पर फल खाने का सन्देह हुआ। सो अन्य चारों ने मिलकर उसकी जमकर पिटाई की। कमर में बाँधे जाने वाले काले धागे से उसका गला भी घोंटने का प्रयास किया। फिर वे अपने बेहोश दोस्त को घसीटकर एक नाले के पास फेंक आए।

दो दिन तक जब डबका अनुपस्थित रहा तो शाला के अधिकारियों ने उसके घर जाकर पता लगाया कि कहीं वह घर तो नहीं पहुँचा। वहाँ न मिलने पर उन्होंने उसे जंगल में ढूँढना शुरू किया। दो दिन से बेहोश पड़ा डबका उन्हें मिल गया। उसकी जान बचा ली गई।

किन्तु क्या हममें इतना क्रोध भर गया है कि एक सीताफल के लिए हम किसी की जान ले सकते हैं? इतना क्रोध आया कहाँ से? क्या इतने छोटे बच्चे भी इतने निर्मम हो सकते हैं? या क्या हम जन्म से ही निर्मम होते हैं और हमारा समाज व परिवार हमें दया और मोह सिखाता है?

क्या हमें बच्चों को अपने क्रोध पर काबू पाना नहीं सिखाना चाहिए? माता पिता से यह अपेक्षा करना वैसा ही है जैसे गूँगे से गाना गाने की। तो स्कूल में अध्यापकों को पहले दो एक साल क्या बच्चों को शिष्टता, व्यवहार, सहयोग, नैतिक मूल्य, क्रोध पर काबू करना, क्रोध को सही दिशा देना, अपनी भावनाओं को दिखाने का सही तरीका आदि ही नहीं सिखाना चाहिए? पढ़ना लिखना दो एक साल बाद भी हो सकता है किन्तु अच्छा मनुष्य बनाने में देर नहीं होनी चाहिए।

किन्तु प्रश्न यह उठता है कि अध्यापकों को क्रोध पर काबू पाना कौन सिखाएगा? सबसे पहले तो उन्हें ही यह सिखाना पड़ेगा। जब मैंने अध्यापन शुरू किया था तो अपने आपसे यह प्रतिज्ञा की थी कि जिस दिन भी मेरा मन हाथ उठाने का होगा उसी दिन मैं पढ़ाना बंद कर दूँगी। मेरे अध्यापन के दिनों में एक अध्यापिका अपने क्रोध के लिए जानी जाती थीं। उन्हें गुस्सा बहुत सरलता से आ जाता था और फिर उनके हाथ में होता था डंडा और विद्यार्थियों का सुकोमल शरीर धुन देती थीं। क्योंकि उनकी उम्र बहुत कम थी सो मैं उन्हें रोक पाती थी। मैंने उनसे निवेदन किया कि जब भी क्रोध आए तो दस तक गिनें। चाहें तो बोलकर ही गिनें। इससे विद्यार्थियों को भी पता चल जाएगा कि उन्हें जोर का गुस्सा आया है। और डंडा तो कभी भी अपने साथ न रखें। यह तरकीब सफल रही।

परन्तु मुझसे भी उम्र में बड़ी एक अध्यापिका थीं जो आराम से अपनी कलाई की सारी चूड़ियाँ उतारती थीं और फिर आराम से बच्चों की ठुकाई करती थीं। जिसका अर्थ तो यह हुआ कि वे सोच समझकर पीटती थीं। एक अन्य अध्यापक तो पिटाई करते समय अपने होशोहवास ही खो बैठते थे।

जब अध्यापक विद्यार्थियों को मारते हैं तो क्या वे उन्हें यह पाठ नहीं पढ़ाते कि गुस्सा आए तो मारो? किसी से कोई गलती हो जाए तो मारो। याने समस्या का समाधान यही है। यही पाठ घर में अभिभावक भी सिखाते हैं। फिर क्या आश्चर्य जो एक शरीफ़े के लिए बच्चे अपनी सारी शराफ़त, सारी दोस्ती ताक पर धर दें और जान लेने पर उतारू हो जाएँ?

घुघूती बासूती

26 comments:

  1. बहुत सार्थक चिन्तन किया है.

    आश्चर्य होता है जब लोगों में ऐसा गुस्सा देखता हूँ.

    निश्चित ही क्रोध पर काबू पाने के तरीकों को विस्तारपूर्वक अमल में लाये जाने की बाकयदा प्रशिक्षण होना चाहिये.

    अभी कुछ दिनों पहले पढ़ता था कि एक शिक्षक द्वारा एक बालक को इतना मारा गया कि वह बहरा हो गया.

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  2. महत्वपूर्ण प्रश्न।
    बच्चों में ही नहीं, बड़ों में भी, जिनसे धैर्य और सहनशीलता की अपेक्षा थी, उनमें क्रोध की मात्रा बढ़ रही है। मैं खुद इसका शिकार हूं। बीते वर्षों में शायद मेरे क्रोध की मात्रा में 100 गुना इजाफा हुआ है। इस क्रोध के चलते काफी नुकसान हो रहा है।

    कारण हमारे आसपास ही हैं। निराकरण तो पिछले जन्मों से सामने है। समीकरण, वेवलैथ और सहज वृत्ति अब सबमें कहां?

    धैर्य, शील क्या सिर्फ किताबी बातें रह गई हैं? मौन तो किसी युग में निवृत्ति और बोध का प्रतीक था। क्रोध पर काबू पाने के लिए मौन को ही स्वभाव बना लिया जाए, यह तो अप्राकृतिक है?
    समस्या को दूसरे भी इसी सघनता से समझें, निदान तभी होगा। वर्ना मेरे मौन रहने से गुस्सा तो नहीं उभरेगा, पर मेरे बोलने से जो लाभ हो सकते हैं, उन पर अस्थाई और लम्बा विराम लग चुका है।

    अच्छी पोस्ट दीदी, हमेशा जैसी....

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  4. पुरानी पीढ़ी संस्कार और संस्कृति से हीन हो तो नई पीढ़ी कहाँ से सीखे, आज आदर्शों की कमी है. फिल्म टीवी और असभ्य समाज के बच्चे हिंसक और विकृत नहीं होंगे तो क्या होंगे?
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    आप शायद शौकिया शिक्षक थीं, पर दूसरे जिंदगी की लाचारियों के कारण शिक्षक बने थे पर और कुछ न बन पाने से कुंठित थे. यह कुंठा बच्चों पर उतरती है. हर इन्सान में दूसरों को नियंत्रित करने की चाह होती है, शाहजहाँ को जब औरन्जेब ने कैद किया तो शाहजहाँ ने अपना खाली समय काटने के लिए कैदखाने में ही एक छोटा मोटा मदरसा खुलवाने की सिफारिश की. जिसे सुनकर औरंगजेब ने कटाक्ष किया की देखो बुड्ढे को बादशाहत छिन गई पर हुकूमत करने का शौक नहीं गया!

    शिक्षक अपनी कक्षा में किसी राजा से भी ज्यादा महाराजा होता है, वह कहे तो उसकी प्रजा (छात्र) खड़े हो जाते हैं, वह कहे तो बैठ जाते हैं, कक्षा में उसकी ही तूती बोलती है , उसकी मर्ज़ी के बिना पत्ता नहीं हिलता..... और सबसे बड़ी बात की वह चाहे तो मार-पीट व प्रताड़ित करके दंड भी दे सकता है. इतनी ताकत तो असली तानाशाह या राजा के पास भी नहीं होती. इसीलिए कुछ ऐसे लोग जो जिंदगी में कुछ करने लायक नहीं रहते, अपनी हुकूमत करने की इच्छा पूरी करने के लिए बच्चों को पढ़ाने लग जाते हैं.

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  5. anupa rachna !pratah-kal aapke blog par laga parindo ka chitra subah kee sfoorti ka khyal de gaya ! dhanyawaad !!

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  6. टीचर द्वारा बाकायदा चूडी उतारकर यदि पिटाई की जाने की तैयारी हो रही हो तो उन्हें चाहे सौ तक भी गिनने को कहा जाय तो वह न कर पाएंगी।
    फिलहाल तो यह गुस्सा करना और उसे शो करना भी कुछ टीचरों के टेक्टिक का हिस्सा होता है कि इससे उनकी अलग ही छवि छात्रों में बनेगी। लेकिन वह भूल जाते हैं कि यह छवि अच्छी तो कत्तई नहीं होती, भले ही इससे उन्हें एक तरह का मानसिक सूकून मिल रहा हो।
    अच्छी पोस्ट।

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  7. जिस तरह से शिक्षकों को डिग्रियां और नौकरिया मुफ्त रेवड़ी की तरह बांटी जा रही है ...शिक्षा , शिक्षक और विद्यार्थी का भविष्य अंधकारमय ही है ....
    शिक्षक को लेकर जो आदर्श मापदंड निर्धारित किये गए थे वे धुल धूसरित हो चुके हैं ....ऐसे में इनसे और उम्मीद भी क्या की जा सकती है ....जो खुद आदर्शों और सिद्धांतो पर खरे नहीं उतरते... वे विद्यार्थियों को संस्कारित करेंगे ...यह चाह और उम्मीद ही व्यर्थ है ...
    बहुत सटीक दृष्टि है आपकी ....!!

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  8. जब ठान कर पिटाई करने की बात हो तो मैं इसे क्रोध भी कैसे कहूँ ? क्रोध में इतना विवेक और धीरज कैसे कि बकायदा चूड़ियाँ उतारने का समय खर्च किया जाय !
    यह तो एक दूसरी ही मनोदशा है -यथा कोई पूर्वाग्रह, कोई पूर्व-निश्चित धारणा आदि !
    हाँ, यह जरूर है कि क्रोध की प्रवृत्ति के समय ही यदि अंकुश करने की कोशिश हो तो थोड़ी सफलता मिल सकती है - तरीका जो अपनाया जाय- दस तक गिनना भी उनमें से एक है ।

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  9. किसी को मारना एक कर्म है। हमारे कर्म बनते हैं हमारे संस्कार से और संस्कार बनती है शिक्षा से। आपको आरम्भ से ही ऐसी शिक्षा मिली है कि आप किसी को मारने के कर्म को अनुचित समझती हैं किन्तु जिसे ऐसी शिक्षा नहीं मिली है वे इसी कार्य को न केवल उचित समझते हैं वरन ऐसा कार्य करने में उन्हें आनन्द भी आता है। आवश्यकता सही शिक्षा की है।

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  10. गंभीर मामला है।बचपन से लेकर कालेज तक़ हमने अपनी शैतानियों के कारण पिटाई खाई है लेकिन गुरुजनो की उस पिटाई मे छिपा उद्देश्य और प्यार हमारे समय मे पहचान लिया जाता था।घर मे बताने पर और मार पडती थी,लेकिन अब घर मे कोई बच्चा बताता है कि उसे स्कूल मे पीटा तो गार्डियन दूसरे दिन स्कूल पहुंच कर पिल पड़ते हैं।ज़माना बदला है शायद उसी के साथ-साथ शायद तनाव भी बढा है,गुरूजनों पर भी और छात्रों पर भी।इसके लिये ज़िम्मेदार कोई और नही हम लोग खुद हैं,बच्चे नही।

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  11. और हाँ, सीताफल तो हमारे यहाँ कोंहड़ा (एक सब्जी) को कहते हैं ।

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  12. विचारणीय व बढिया पोस्ट है। बधाई।

    क्रोध पर नियंत्रण करना सही मे बहुत मुश्किल होता है। इस के लिए सभी से होश पूर्वक व्यवाहर करने की कला सीखनी पड़ेगी। तभी यह संभव है।

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  13. हिन्सक हो रहा है समाज .इलाज़ की जरुरत लेकिन फ़ार्मुला किसी पर नही

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  14. सच में इंसान कितना हैवान बन चुका है.. वाकई में सोचने वाले बात है. एक शरीफे के लिए इतना गुस्सा..

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  15. हमारे बचपन में ठुकाई पिटाई एक परंपरा थी। कुछ समय जब तक समझ नहीं थी। उस परंपरा को हम ने भी निभाया। लेकिन जब देखा कि यह तो ऐसा इलाज है जो मर्ज को बढ़ाता है। शरीर कुछ दिन की मारपीट के बाद इम्यून हो जाता है।
    फिर यह परंपरा हम ने समाप्त कर दी। हमें पता नहीं कभी बच्चों पर हाथ उठाया हो। क्रोध मनुष्य को हैवान बनाता है। उस से छुटकारा पाया जा सकता है, पाना चाहिएष महाभारत की एक कथा में क्रोध पर काबू पाने वालों को सौ अश्वमेध यज्ञों के पुण्य का भागी बताया है।
    लेकिन उन का क्या जो मारपीट बिना क्रोध के ठण्डे दिमाग से करते हैं (तसल्ली से चूड़ियाँ उतार कर) वे तो आदतन अपराधी हैं। उन के विरुद्ध समाज और राज्य को भी कठोर हो कर उन्हें दंडित करना ही चाहिए।

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  16. सवाल सिर्फ एंगर-मैनेजमेंट का नहीं है। इन्‍कन्विएंट महोदय की मबात में दम है... अपने स्‍कूलों कॉलेजों में दो प्रकार के लोगों की बहुतायत देखी है एक जो कुछ और बनना चाहते थे पर मास्‍टर/नी बनना पड़ा दूसरे जो कुछ भी बनने लायक नहीं थे मास्‍टर बन गए ऐसे में बच्‍चे पहली कैटेगरी के शिक्षकों की कुंठा तथा दूसरी कैटेगरी के शिक्षकों की सत्‍ता के शिकार होते हैं।
    दूसरी तरु समाज में पुलिस के ठुल्‍ले, दफ्तर के बाबू, बैंक के कर्मचारी सबके लिए रखता रूतबा रखता है पर मास्‍टर के लिए सिर्फ बेचारगी... कुंठाएं न हों ता क्‍या हो।

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  17. बच्चों में मेधा पहले से कहीं ज्यादा है, पर बच्चों में क्रोध-ईर्ष्या-अवसाद के दुर्गुण भी ज्यादा होते जा रहे हैं उत्तरोत्तर।
    उपाय नजर नहीं आता।

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  18. जिस पीढी को संस्कार में टीवी और फिल्मों में मारधाड मिली हो, उससे और क्या अपेक्षा की जा सकती है।

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  19. जीबी ,
    सबसे पहले तो यह स्पष्ट कर दूं की बच्चों का क्रोध सीता फल का अंश अप्राप्त रहने के कारण नहीं था ! भला एक फल में किसको कितना हिस्सा मिलता ? वास्तव में उनका क्रोध , विश्वासघात / 'अपेक्षित सहभागिता में धोखेबाजी', के प्रति था ! मृत्यु हर हाल में गलत है , लेकिन सीताफल के अंशभाग के बजाये उसे विश्वासघात से जोड़कर देखा जाना चाहिए ! मेरे ख्याल से बच्चों का आक्रोश , दुर्भाग्यवश , दुखद घटना में बदल गया , वर्ना अनुचित नहीं है ! जहां तक बड़ों का प्रश्न है वे भी अपेक्षाओं में खरा नहीं उतरने वाले निकटवर्ती के प्रति ही क्रोध को अभिव्यक्त करते हैं जिसका तरीका बहस का मुद्दा और जिसकी परिणति गंभीर तो हो सकती है किन्तु सर्वथा नाजायज नहीं है ! मान लीजिये की मैं अपने पुत्र के लिए अपना पेट काट कर सहायक बनूं परन्तु पुत्र लापरवाही से मेरी मेहनत को नजर अंदाज भी करदे तथा मेरी अपेक्षाओं से घात भी करे तो क्या मेरा रिएक्शन नाजायज होगा ?
    मानता हूँ की क्रोध नहीं होना बेहतर है क्योंकि क्रोध का तरीका और उसकी मात्रा घातक भी हो सकती है लेकिन .........क्रोध , अंततः अपेक्षाओं के नकारात्मक परिणाम के प्रति एक रिएक्शन ही तो है अतः इसके लिए उभय पक्ष को जिम्मेदार माना जाना चाहिए ! यानि भुक्तभोगी भी उसका उत्तरदाई है !

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  20. घटना ईशारा कर रही है कि भविष्य बहुत ही चिंताजनक होने वाला है ....इसलिए माहौल को ठीक करने के लिए समाज को अभी से बदलाव की ओर मुडना होगा ......ऐसा हो पाएगा ....पता नहीं .....

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  21. जय हो!
    आजकल तो महापुरुष फिल्मी एक्टर ही हैं।

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  22. ्सब वैसा ही है पहले जैसा। कुछ बदला नही है

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  23. पता नही इस के लिये कौन ज़िम्मेदार है ।

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  24. आपकी ये चिंता सही हैं और ये सुझाव भी कि क्यों न शुरुआती साल में बच्चों को सभ्य और शिष्ट आचरण की शिक्षा दे। स्कूल में ये होना मुश्किल लगता है और घरों में तो माँ-बाप के पास इतना समय ही नहीं है कि वो घरों में बच्चों को ऐसी शिक्षा दे। ऐसे में बच्चों से पहले भावी माता-पिता और बीएड के कोर्स में भावी शिक्षकों को ये सिखाया जाए कि वो पहले खुद के गुस्से को कैसे शांत रखें।

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  25. aap ka yah sandesh pratyek mna, bap,guruji ya mastar ji ko ek sabak ki tarah yad rakhana chahiye.
    bhagyodayorganicblogspot.com

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