मैं मतदान कर आई। क्यों कर आई ? क्योंकि मुझे यह कहानी याद आती है।
एक राजा को सुबह सुबह कोई विशेष पूजा/ अभिषेक करना था, जिसमें बहुत दूध की आवश्यकता थी। उसने अपने शहर की प्रजा से कहा कि रात को सभी एक एक लोटा दूध मंदिर के पास एक खाली पड़े तालाब में डाल दें ताकि अभिषेक के लिए आराम से दूध भी इकट्ठा हो जाए और बिना किसी पर अधिक बोझ पड़े सभी की तरफ से अभिषेक भी हो जाए। सब लोग सहमत हो गए।
अगले दिन जब राजा अभिषेक के लिए गया तो उसने पाया कि तालाब में दूध की जगह लगभग पानी ही था। पानी का रंग हल्का दूधिया अवश्य था। राजा आश्चर्यचकित था और लोग भी। हुआ यह था कि लगभग प्रत्येक व्यक्ति ने सोचा कि इतने सारे लोग तालाब में दूध डालेंगे तो वह एक लोटा पानी ही डाल देगा तो क्या अंतर पड़ेगा। अब एक व्यक्ति पानी डालता तो तालाब का दूध उस पानी मिलाने पर भी दूध ही रहता किन्तु वहाँ तो सभी ने पानी डाल दिया था।
यही हाल लोकतंत्र का भी हो गया है। प्रत्येक व्यक्ति जब यह सोचता है कि एक उसके मत न डालने से क्या अंतर पड़ेगा तो लोकतंत्र का तालाब भी केवल पनीले दूध से भर जाता है, असली शुद्ध दूध रूपी लोकतंत्र से नहीं। मतदान न करने वाले इस लोकतंत्र के यज्ञ में जहाँ दूध की आहुति चाहिए वहाँ मत न देकर मानो एक लोटा पानी डाल आते हैं और लोकतंत्र के दूध को पानीमय बना देते हैं। जब ४० या ५० प्रतिशत ही मतदान होगा तो सोचिए मतदान कौन नहीं करके आए हैं। जो मतदान के प्रति उदासीन हैं वे कोई अनपढ़ व्यक्ति नहीं हैं । वे वे ही लोग हैं जो पढ़े लिखे हैं, जो वर्तमान व्यवस्था से असंतुष्ट हैं, किन्तु जो इसमें भाग न लेकर इस व्यवस्था को और भी लचर बना रहे हैं। जब प्रत्याशी जानते हैं कि पढ़े लिखे लोग मतदान नहीं करेंगे तो वे अनपढ़ गरीब जनता को लुभाने वाले ही वायदे व काम करते हैं। यदि सभी वर्ग के लोग मतदान करने लगें तो वे भी मजबूर हो जाएँगे कि उनके काम, भाषण व वायदे किसी एक वर्ग विशेष के लिए न होकर सभी नागरिकों के लिए हों। तब शायद कोई हमारा मत धर्म, जाति या खोखले वायदों से नहीं खरीद पाएगा। तब शायद दलों व प्रत्याशियों में कुछ काम करके जीतने की होड़ लगेगी। तब वे हमें एक खरीददार का आदर देंगे। जब हमारे हाथ में राजा का मुकुट होगा तो उस मुकुट को पहनने के लिए प्रत्याशियों को अपनी योग्यता सिद्ध करनी होगी। किन्तु यदि हम यह दर्शाएँगे कि इस मुकुट को हाथ में लेने भर से हमारे हाथ मैले हो जाएँगे तो वे हमारी कद्र क्यों करेंगे?
'जिन खोजा तिन पाइया गहरे पानी पैठ' ही हमारा महामंत्र होना चाहिए। हम यदि राजनीति के पानी को दुर्गंधमय मानकर उसमें डुबकी लगाने से कतराएँगे तो हम मोती तो कतई नहीं पा सकेंगे। माना अभी मोती शायद हैं भी बहुत कम या शायद न ही हैं किन्तु जिस स्तर के लोग मतदान करेंगे उसी स्तर के प्रत्याशी भी होंगे। यदि आप अपने स्तर के नेता चाहते हैं तो डुबकी तो लगानी ही पड़ेगी। देखिए फिर हम जैसे लोग भी चुनाव लड़ने को आगे आएँगे।
गुजरात के राज समधियाला नामक गाँव में ८४ प्रतिशत मतदान हुआ। समाचार पत्र के अनुसार यह भारत के सबसे साफ सुथरे गाँवों में से एक है। यहां मतदान करना अनिवार्य है। जो मतदान नहीं करते उन्हें ५१ रुपए का दंड भरना पड़ता है। यहाँ के १०१९ मतदाताओं में से ८५० ने मतदान किया। ५० लोगों को वैध कारणों से मतदान से छूट मिली थी। जो १५० मतदाता गाँव से बाहर थे उनमें से भी लगभग ८० मतदान के लिए वापिस आ गए थे। यहाँ १९८३ से सदा ८० प्रतिशत से अधिक मतदान हुआ है।
मतदान न देने को भी हम अपना अधिकार मान सकते हैं। सो शायद दंड वाली बात गले नहीं उतरती परन्तु हम अपने परिवार, अपने मित्रों, सहयोगियों को तो मतदान करने को प्रेरित करने का यत्न कर सकते हैं। कुछ और नहीं तो यह तो पूछ ही सकते हैं कि मतदान कर आए क्या। यदि सभी उनसे पूछने लगेंगे तो शायद उन्हें भी लगने लगे कि उनसे मतदान करने की अपेक्षा की जाती है।
घुघूती बासूती
Saturday, May 02, 2009
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ऑस्ट्रेलिया से आये मेरे मित्र ने मुझे बताया की वहां मत दान आवश्यक है यदि आप कही बाहर है तो भी नेट या दुसरे कई माध्यमो से आप मतदान कर सकते है .यदि कोई व्यक्ति किसी कारणवश ऐसा नहीं करता है तो उसको बाकायदा एक्सप्लेनेशन देना पड़ता है लिख कर .की क्यों उसने ऐसा किया ....जाहिर है .यहाँ भारत में लफ्फाजी ओर दूसरी चीजो से काम नहीं चलता .दंड .या डंडा या कोई अनुशासन ....ही ऐसा कर पायेगा....लेकिन इससे भी ज्यादा जरूरी है पढ़े लिखे साफ़ सुथरे लोगो का राजनीति में आना ......
ReplyDeleteचुनाव आयोग क्यों न्यूनतम योग्यता नहीं रखता किसी प्रत्याशी की .कम से कम कुछ शैक्षिणिक योग्यता हो...कोई मुकदमा न हो.....
इस बार पढ़े लिखे ज्यादा मतदान करने निकले. हमारे यहाँ तो यही देखा गया. फिर गर्मी व शादियाँ भी थी, फिर भी पिछली बार से ज्यादा मतदान हुआ.
ReplyDeleteआम नागरिक मतदान के लिए ही नहीं लोकतंत्र के प्रति भी उदासीन हो चुका है | मतदान हमें इस लिए करना चाहिए क्योंकि यह हमारा कर्तव्य है | फिलहाल मतदान करने से कोई बडा परिवर्तन आ जाएगा या राजनीति की दिशा बदल जायेगी यह कल्पना करना निरर्थक है |
ReplyDeleteआपने बिल्कुल ठीक कहा. हमसब को मतदान करना ही चाहिए. इस बार लोकतंत्र के तालाब में दूध डालने से शुरुआत हो. एक बार शुरुआत होगी तभी जाकर अगली बार और दूध पड़ेगा. नहीं तो हालत बिगड़ती जायेगी.
ReplyDeleteमतदान अनिवार्य होना ही चाहिये, माना
ReplyDeleteलेकिन हमारे दूध की बूंदे कीचड़ में तो नहीं जायें, यदि हमारे सामने नागनाथ और सांपनांथ खड़े हों तो किसको वोट दें?
मतदान में इनमें से कोई नहीं का विकल्प भी होना चाहिये
आपके लिए तो हमारे पूरे परिवार का वोट पक्का.आपकी भावनाओं को समझ सकते हैं. यहाँ हम लोग भी खूब पीछे पड़े रहे. यहाँ तक कि नकारात्मक वोट के लिए भी समझाया गया था.
ReplyDeleteदूध वाली कहानी बिलकुल सटीक बैठती है लोकतंत्र की इस हालत पर.
ReplyDeleteबहुत सटीक कथा सुनाई आपने दुध वाली. मतदान तो एक नैतिक जिम्मेदारी है जिसे सबको उठाना ही चाहिये.
ReplyDeleteye kahani pahle bhi kahin padhii hai ..isse sundar udhahran nahi ho sakta koi.
ReplyDeleteaapki har kahani har lekh ek manjil ka rasta batata shilalekh hota hai.
मतदान तो करना ही चाहिए। वह जूरूरी होना चाहिए। यदि आप को कोई उम्मीदवार पसंद न हो तो नो वोट ही करें पर करें जरूर।
ReplyDeleteबहुत सही लिखा है आपने ,मेरा तो सुझाव है कि सारे चुनावों को ग्राम -पंचायत और जिला पंचायत के चुनाव के साथ करना चाहिए ,मुफ्त में वोट प्रतिशत बढ़ जायेगा .
ReplyDeleteसटीक और सामयिक्। हम तो मत का दान नही उपयोग करते हैं,नतीजा चाहे जो निकले इससे हम चुकते नही है।
ReplyDeletebahut achhi kahani sunayi ghughuti ji ,ekdam fit baithi hai,vote karna chahiye bahut jaruri hai sehmat.
ReplyDeleteऔर आपने अपने होने का परिचय दे ही दिया....मैं भारत के लोकतंत्र की और से....चाहे जैसा भी यह है,आपको धन्यवाद देता हूँ.....!!
ReplyDeleteपूर्ण प्रासंगिक कथा ।
ReplyDeleteमतदान करना वास्तव में इस लोकतंत्र के प्रति अपने कर्तव्य को पहचानना है । गुजरात के एक गाँव का अनुकरण जरूरी हो गया है सम्पूर्ण भारत के लिये ।
अगले दिन जब राजा अभिषेक के लिए गया तो उसने पाया कि तालाब में दूध की जगह लगभग पानी ही था। पानी का रंग हल्का दूधिया अवश्य था। राजा आश्चर्यचकित था और लोग भी। हुआ यह था कि लगभग प्रत्येक व्यक्ति ने सोचा कि इतने सारे लोग तालाब में दूध डालेंगे तो वह एक लोटा पानी ही डाल देगा तो क्या अंतर पड़ेगा। अब एक व्यक्ति पानी डालता तो तालाब का दूध उस पानी मिलाने पर भी दूध ही रहता किन्तु वहाँ तो सभी ने पानी डाल दिया था।
ReplyDeleteइस कहानी के मार्फत बहुत बड़ा व्यंग कर दिया आपने..अच्छा और हँस लिया.
सही कहा जी।
ReplyDeleteरोहित जोषी , गंगोलीहाट
ReplyDeleteमतदान क्यों जरूरी यह एक महत्वपूर्ण सवाल है। इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि लोकतंत्र में मतदान किया जाना भी महत्वपूर्ण है। लेकिन इससे पहले यह समझा जाना चाहिए कि महज एक बैलेट पेपर पर मुहर लगाकर उसे डब्बे मंे डाल देना मतदान नहीं है या आजकल के हिसाब से महज ईवीएम पर बटन दबा देना ही मतदान नहीं है। लोकतंत्र में वोट देने का अधिकार है तो वोट न देने का भी एक स्वाभाविक अधिकार है। सहजता से समझे ंतो माना हम चुनाव में खड़े किसी भी प्रत्याषी से सहमत नहीं हैं तो ऐसी स्थिति में भी अगर हम महज इस राग को अलापते हुए वोट डालें कि मतदान अनिवार्य है तो क्या ये स्वस्थ लोकतांत्रिक समझदारी होगी? बड़े अफसोस की बात है कि संपूर्ण दुनिया में ऐसा कोई भी लोकतंत्र नहीं है जो जनता को नकारात्मक वोटिंग का अधिकार देता हो। हां इसके इतर आस्ट्रेलिया में तो वोटिंग को अनिवार्य करके जनता के वोट न करने के लोकतांत्रिक अधिकार को छीना गया है। भारत में वोटिंग किए जाने को लेकर इस बीच खूब हो हल्ला हो रहा है। कहीं वोटिंग न करने वाले को चाय कम्पनी जागने का आह्वान कर रही है। कहीं वोटिंग न करने वाले को पप्पू बताया जा रहा है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि ऐसा प्रचार करने वाले भद्र नागरिकों की भारतीय लोकतंत्र को समृद्ध बनाने की ही भलमनसाहत है। लेकिन एक बात और भी है कि लोकतंत्र का हो हल्ला करने वाले इन लोगों को लोकतंत्र की वास्तविक समझदारी ही नहीं है। बहरहाल मेरा सुझाव है कि इन लोगों को वोटिंग करने की जागरूकता से फैलाने से पहले संविधान में नकारात्मक वोटिंग के अधिकार के लिए आंदोलित होना चाहिए। और हां कहीं ऐसा तो नहीं जिन्हैं ये लोग जगा रहे हैं या पप्पू बता रहे हैं वे लोग नेताओं द्वारा देष की जनता को पिछले 60 सालों से पप्पू बनाने की हकीकत को जानते हों और न सिर्फ जागे हों अपितु किसी बड़े राजनैतिक विकल्प की तैयारी में जुटे हों। बहरहाल इन चुनावों में मैं ई0वी0एम0 मषीन पर बटन नहीं दबाऊॅंगा इसका मतलब यह नहीं कि मैं वोट नहीं कर रहा हूं। मैैं वोट कर रहा हूं लेकिन मुझे ये प्रत्याषी पसन्द नहीं हैं। अब चाहे आप मुझे पप्पू कहें या जागने के लिए चाय पिलाऐं..................................।
अमरीकी उपन्यासकार हावर्ड फ्रास्ट का एक उपन्यास है फ्रीडम रोड’ हिन्दी पाठकों के लिए यह उपन्यास मुक्तिमार्ग नाम से गार्गी प्रकाषन द्वारा निकाला गया है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित इस उपन्यास में अश्वेत अमरीकियों को पहली बार मतदान का अधिकार मिलने की घटना से ही उपन्यास की शुरूआत है। उपन्यास का नायक ‘गिडियन जैक्सन’ अपने गांव का प्रतिनिधित्व कर मतदान करने जाता है। लेखक ने उस सम्पूर्ण समाज के भीतर मतदान के प्रति जिस उत्सुक्ता, आषाओं और उम्मीदों को चित्रित किया है। मुझे यही लगता है कि सम्पूर्ण विष्व में मतदान के पीछे अलग अलग स्वरूपों में वही उत्सुकता वही आषाऐं और उम्मींदें काम करती हैं। लेकिन जहां तक एक स्वस्थ लोकतंत्र का सवाल है वहां जनता के राजनैतिक रूप से जागरूक होना भी अनिवार्य है। और क्या भारतीय संसद की हालत को देखकर नहीं लगता कि यहां एक बड़े परिवर्तन की जरूरत है? और ऐसे ही परिवर्तन की आषा भारतीय मतदाताओं में भी। और मैं समझता हूं कि इसमें नकारात्म वोटिंग मदद ही पहुंचाऐगी।