एक जमाना था जब बच्चों को कहा जाता था ज्ञान बढ़ाना है तो समाचार सुनो, यदि साथ ही साथ भाषा भी बेहतर बनानी हो तो समाचार पत्र पढ़ो। आज यदि मेरे घर में कोई बच्चा होता तो मैं कभी नहीं चाहती कि वह टी वी पर समाचार देखे सुने। यदि ना कहती तो शायद वह और अधिक देखना सुनना चाहता। ऐसे में यदि उसे टी वी देखना ही होता तो मैं चाहती कि चाहे केकता कपूर के कीरियल देख ले, सास बहू व परिवार की स्त्रियों का या तो भोलापन या खलनायिकी देख लें परन्तु समाचार यदि दूरदर्शन के न हों तो समाचार कदापि न देखे।
आज समाचारों में लाइव हत्या दिखाई जा रही थी। वाह क्या बात है, एक पुरुष एक स्त्री की कनपटी पर पिस्तौल लगाए खड़ा है, दर्शक साँस रोके देख रहे हैं मारेगा या मरेगा या छोड़ देगा। क्या कुछ शर्तें नहीं लग रहीं थीं ? एस एम एस नहीं भेजे जा रहे थे चैनल्स को कि स्त्री मरेगी या बचेगी ? सही जवाब देने वाले को २७ इंच का रंगीन टी वी नहीं दिया जा रहा था ?
दर्शक खाना भी खा रहे थे और यह मनोरंजन भी देख रहे थे। डॉक्टर साहब बता रहे थे हत्यारे का मनोविज्ञान और पुलिस को कैसे उससे निपटना चाहिए। यदि डॉक्टर साहब से एक मरीज इतना समय माँगता तो क्या वे दे पाते ?
मैं सोच रही थी कि इस विभत्स नाटक के पात्र यदि जवित बचेंगे तो क्या समाचार चैनेल वाले उन्हें पारिश्रमिक भी देंगे? मर गए तो परिवार वालों को ? इतना मनोरंजन करने के लिए तो मिलना ही चाहिए।
ओह, ओह, स्त्री पर गोली चला दी गई। ओह , ओह पुरुष अपराधी को भी गोली या गोलियाँ मार दी गईं। हो गया इन्सटेन्ट न्याय ! बढ़िया मनोरंजन हो गया ! पैसा वसूल हो गया ! खाना भी खतम हो गया।
किसी समय में डिस्कवरी चैनेल में किसी पशु का शिकार यदि हो रहा होता था तो खाना मेरे गले नहीं उतरता था, आज मनुष्य का शिकार होते देख रही थी। और प्रेम से पति के साथ खाना भी खा रही थी। घुघूत जी को टी वी देखना होता है ना ! कहाँ गईं मेरी, आपकी हम सबकी संवेदनाएँ ?
क्या किया जाए ? क्या समाचार सुनना बंद कर दिया जाए ? या समाचार लगाने से पहले बच्चे, बूढ़ों, हृदय के रोगियों को वहाँ से हटा दिया जाए ? या फिर इन्हें वयस्क चैनेल घोषित कर दिया जाए ?
घुघूती बासूती
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मनुष्य प्रजाति अब संवेदना इम्यून होती जा रही है !
ReplyDeleteसिर्फ खो जाती तो ढ़ूँढ़ निकालते मगर हमारी संवेदनाऐं तो मर गई हैं, उन्हें कैसे वापस लायें?
ReplyDeleteआज के दौर में संवेदना कि खोज करना बेमानी ही है.. उसे बस हम अपने भीतर जिन्दा रखे इतना ही काफी होगा..
ReplyDeleteहर चीज़ सिर्फ़ TRP तक सीमित है, अगर A सर्टीफेकेट दे दें तो भी U करना ही पड़ेगा!
ReplyDelete---मेरा पृष्ठ
गुलाबी कोंपलें
बस सरकार अगर कुछ न कहे तो धन्ना सेठों के तथाकथित पत्रकारिता वाले घराने २४ घंटे के ब्लू फ़िल्म चैनल चलाने को तैयार बैठे हैं...जितना कम लें उतना ही कम.
ReplyDeleteप्रत्येक व्यवसाय में स्वानुशासन समाप्त हो गया है। हर जगह नैतिकता नीचे की और जा रही है। यह मौजूदा व्यवस्था के पतन के सूचक हैं। यह भरभराकर गिर पड़े उस के पहले नए घर की तैयारी जरूरी है। लेकिन वह कहीं नजर नहीं आ रही है।
ReplyDeleteऐसे असंवेदनशील,अश्लील,और वीभत्स कार्यक्रमों और
ReplyDeleteविज्ञापनों की बाढ़ सी आ गई है। 'वयस्क'घोषित करना भी कोई समाधान नहीं है। इन पर रोक लगनी चाहिये।
वयस्क घोषित करने से भी क्या होगा? क्या पाप को सिर्फ़ पाप कह देने से उसकी विभत्सता कम हो पायेगी?
ReplyDeleteरामराम.
मेरे यहाँ की तो बैठक ही खत्म हो गई। जब से एक विशेष समाचार चैनल नही आ रहा हैं। पूरे एक घंटे को सब के सब बैठते थे आधा घंटा खाना के लिए और आधा घंटा समाचार सुनने के लिए। बाकी समाचार चैनल को घर में कोई देखना ही नही चाह्ता। वो एक मनोंरजन चैनल हो गए। या फिर कल रात की तरह .......। लगता हैं हमें खुद ही बदलना होगा। उन कार्यक्र्मों देखना छोड़ना पडेगा । जब उनकी टी आर पी गिरेगी तब अपने आप वो कार्यक्रम बंद हो जाऐगे।
ReplyDeleteमैं तो समाचार टीवी पर देखता नहीं। रेडियो पर सुनता हूं या इण्टरनेट/समाचारपत्र में पढ़ता हूं।
ReplyDeleteटेलीवीजन में कमर्शियलाइजेशन बहुत पैठ कर गया है।
सुशील जी से सहमत, हमें खुद ही बदलना होगा… हमारे घर पर अमूमन 7 से 10 तक मराठी के चैनल ही चलते हैं इसलिये पता ही नहीं चलता कि बाकी के चैनल कितना गिर चुके हैं… न्यूज चैनल हमारे यहाँ सिर्फ़ "हेडलाइन्स" के लिये ही देखे जाते हैं, जैसे ही हेडलाइन्स खत्म, चैनल बदला… फ़िल्में ही क्या बुरी हैं… वही देखें… बाकी समय मराठी चैनल्स्… इसलिये हम तो इस "गन्दगी" से थोड़ा बचे हुए हैं… ऐसा ही सब लोग करें तो बात बने…
ReplyDeleteएक लम्बा समय हुआ जब समाचार चैनल देखते थे, अतः अभी क्या क्या दिखाते है, नहीं पता.
ReplyDeleteप्रतियोगिता उपर ले जाती है, यहाँ चैनलों में एक दुसरे से ज्यादा नीचे गिरने की होड है.
समाचार चैनलों पर समाचार देखने का अब मन ही नही होता
ReplyDelete'संवेदना' कुछ सुना-सुना सा लगता है।
ReplyDeleteसब तो हमारा ही किया धरा है हम न देखते न ये दिखाते.....वक्त आ गया है "बस बहुत हो गया" कहने का| सब मिलकर इनको देखना सुनना बंद करें ये सीधे हो जायेंगे| समाचार पत्र, रेडियो इससे बचे हुए हैं, उनसे काम चलायें|
ReplyDeleteऎसी बेहुदा बाते, ओर समाचार सिर्फ़ भारत मै ही दिखाये जाते है,फ़िल्मे भी युरोप से चार कदम आगे...
ReplyDeleteइस लिये हम ने भारतीय टी वी देखना ही बन्द कर रखा है हमारी बीबी रात को एक दो सीरियल देखती है, लेकिन हमारे यहां पर भारतीया टी वी पर भी इतना कुछ नही दिखाया जाता जितना बेहुदा पन भारत मै दिखाया जाता है, अगर यह यहां भी यह सब दिखाये तो इन का टी वी एक दिन मै बन्द हो जाये.
धन्यवाद
आपका कहना तो उचित ही है पर लगता है आज ये बातें मायने नहीं रखतीं तभी तो हर ऐसे ही किसी प्रोग्राम के बाद चैनल्स की टी. आर, पी बढ़ जाती है. यह मशीन युग है, संवेदनाएं मर चुकी हैं
ReplyDeleteये सब प्रायोजित है...
ReplyDeleteगर्मा-गर्म बाज़ार है और दुर्स्थिति यह है कि दर्शक हैं
...
संवेदना नाम की चिड़िया तो अब की फुर्र हो चुकी है
आपकी चिंता जेनुइन है.
मैं टीवी नहीं देखती...बिल्कुल ही नहीं, न तो सीरियल और समाचार चैनल तो भूल से भी नहीं, ये पिछले कुछ दू तीन सालों से छोड़ रखा है. अखबार पढ़ती हूँ, या गूगल न्यूज़...समाचार चॅनल का स्तर इतना गिर गया है कि लगता है इससे बेहतर कुछ भी न देखें.
ReplyDeleteलेकिन हालत पहले से बदतर होते जा रहे हैं. मॉस काम् कि स्टुडेंट होने के कारन कॉलेज में जब तक थी इन चीज़ों पर ध्यान देना होता था, समीक्षा करनी होती थी. यही नहीं जर्नालिस्म एथिक्स नाम का पेपर भी था कोर्स में. अब तो हर चीज़ जैसे बस मार्केटिंग बन के रह गयी है.
आज सुनकर किसी को यकीं नहीं होगा...पर पहले कई अख़बारों में अलिखित नियम था कि मुख्यपृष्ट पर कोई भी ऐसी तस्वीर नहीं छापी जायेगी जिससे मन व्यथित हो...जैसे मर्डर के बाद कि फोटो या जिसमें खून फैला हो ऐसा कोई चित्र. और ये ख़बर कि पिस्टल लगा के खड़ा है कि जाने आगे क्या होगा?