मेरी वसीयत, मेरे वारिस
अपने से बस दो वर्ष बड़ी बेनजीर जी की मृत्यु का दुख तो बहुत है , परन्तु हम हर दुख से सीख लेने में विश्वास करते हैं । सो सोचा कि बेनजीर जी से भी कुछ सीख लें । बहुत समय से हम अपनी वसीयत बनाने की सोच रहे थे परन्तु यह नहीं समझ पा रहे थे कि हमारे पास वसीयत करने लायक चीजें ही क्या हैं । अब बेनजीर जी की बुद्धिमत्ता को हम दाद दे रहे हैं । देखिये लोग तो अपना बंगला, गाड़ी, स्कूटर या फटीचर सी फैक्टरी ही अपने बच्चों के नाम करते हैं किन्तु बीबी ने तो अपने राजनैतिक दल की कमान ही वसीयत में दे दी है । इसको बोलते हैं खरी खरी बात ! हमारे देश में भी पिता की गद्दी बिटिया को, माँ की गद्दी बेटे को, पति की गद्दी पत्नी को मिलती है परन्तु इस तरह डंके की चोट पर वसीयत में नहीं दी जाती । हमें तो अपने पड़ोसियों की यह बात बहुत पसन्द आई ।
सोच रही हूँ कि मैं भी लगे हाथ वसीयत कर ही दूँ । जीवन में कभी रूपया पैसा तो कमाया नहीं सो वह तो किसी के नाम नहीं कर पायेंगे । अब जो है उस ही का कैसे बंटवारा होगा, अपनी रसोई में दाएँ हाथ के ऊपरी शेल्फ पर रखी अपनी अचार मुरब्बों की ३२ पन्नों वाली रेसिपी की थोड़ी फटी कॉपी के १४वें व १५वें पन्ने के बीच, पास के शहर में जो जूते चप्पलों के सेल का विग्यापन अखबार के साथ आया था , उसकी पिछली तरफ लिखकर रख रही हूँ । यदि मुझे कुछ हो जाए तो घुघूता जी को इसके बारे में याद दिला दीजियेगा ।
वसीयत कुछ यूँ है ....
मेरी शादी में मायके से मिले हार को मेरी बड़ी बेटी को दिया जाए । चूड़ियों को छोटी को । कान का एक एक झुमका दोनों को दिया जाए ।
ससुराल से भी यही सब मिला था । उसके बँटवारे में छोटी बेटी को हार व बड़ी को चूड़ियाँ और कान का एक एक झुमका दोनों को दिया जाए ।
मेरी साड़ियों को अटकन बटकन दही चटक्कन कर दोनों में बाँट दिया जाए । यदि वे ना पहनना चाहें तो वे अपनी कामवाली बाइयों को दे सकती हैं । मेरी बाई साड़ी नहीं पहनती ।
मेरी बन्द पड़ी घड़ी में सेल डालकर मेरी बाई को दे दिया जाए । मेरे पायल, नए रूमालों का पैकेट, मेरी दो अंगूठियाँ, मेरा नीला स्वैटर, ग्रे शॉल मेरी बाई को दे दिया जाए । मेरी सगाई व शादी की अंगूठियाँ बेटियों को साइज के अनुसार दे दी जाएँ ।
मेरी सारी पुस्तकें भी अटकन बटकन दही चटक्कन कर दोनों में बाँट दीं जाएँ ।
मेरी महिला मंडल की अध्यक्षता मेरी बड़ी बेटी को दी जाए । यदि वह अमेरिका से या जहाँ भी वह रह रही हो वहाँ से इसे ना चला सके तो उसकी अनुपस्थिति में मेरी पक्की सहेली श्रीमती ताशवाला को चलाने को दी जाए ।
मेरी किटी पार्टी उपाध्यक्षता व स्कूल की कमेटी की सदस्यता मेरी छोटी बेटी को दी जाए । यदि यहाँ न रहने के कारण उसे यह सब संभालने में दिक्कत हो तो मेरी एक अन्य सहेली कुमारी किटी किटकिटवाला को बिटिया की अनुपस्थिति में चलाने को दी जाए ।
मेरा टूथब्रश व कंघी कचरेदान के सुपूर्द की जाए । टूथपेस्ट घुघूता जी उपयोग कर सकते हैं ।
हमारे विवाह से पहले व बाद में आपस में लिखे सारे पत्र घुघूता जी को दे दिये जाएँ । ये पत्र मेरी अलमारी के लॉकर में जो छिपा खाना है, उसमें एक कागज, जो कभी लाल होता था परन्तु अब कहीं कहीं से रंगविहीन हो गया है, में रूपहले धागे, जो कि अब थोड़ा काला पड़ गया है, से बंधे पड़े हैं ।
इतने वर्षों में मैंने घुघूता जी से छिपाकर जो बचत की है वह गोदाम में, चावल के कनस्टर में, एक रूमाल में बँधी रखी है, वह और मेरे जितने भी पर्सों में, बटुओं में व कपड़ों के नीचे पड़े रूपये व एक कैलशियम सैन्डोज के हाथी के मुँह वाले डिब्बे में पड़ी सारी चिल्लर भी घुघूता जी को दी जाए । मेरा नया सैलफोन भी उन्हें ही दिया जाए ।
मेरी अच्छी चलती बलॉग की दुकान, मेरी रचनाओं को सबसे अधिक सराहने वाले मित्र बलॉगर को दे दी जाए । उसका कूटशब्द मेरे चश्मे के खोल में रखा है ।
बाकी छोटी मोटी चीजें जो भी लेने को तैयार हो उसे दे दी जाए । हाँ, मेरी जो शत्रुता श्रीमती खुन्दकवाला से चल रही थी, वह मेरी पड़ोसन से निबाहने की विनती की जाए ।
घुघूती बासूती
नोट इस लेख में लिखी वसीयत को मेरे जीवनकाल में गोपनीय रखा जाए ।
जिन कोमल हृदय मित्रों को इससे कष्ट हुआ हो वे इसे मजाक समझ टाल दें ।
जिन्हें इससे दुख नहीं हुआ वे इसे गंभीरता से लें ।
पुनश्च ..सभी को नववर्ष की शुभकामनाएँ !
Wednesday, January 02, 2008
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मैडम,आप ने इस व्यंग्य के माध्यम के द्वारा राजनैतिक वसीहतों के इस भद्दे, सड़े-गले सिस्टम पर अच्छा कटाक्ष किया है। पढ़ कर तसल्ली हुई।और जहां तक आप की वसीहत की बात है,ब्लागर कम्यूनिटी की तो यही प्रार्थना है कि आप इतना जीएं कि उस की कभी जरूरत ही न पड़े।
ReplyDeleteशुभकामनाएं
डा. प्रवीण चोपड़ा
जियो सालों साल। नया साल मुबारक हो।
ReplyDeleteजी, हम इस वसीयत को पूरी गम्भीरता से ले रहे हैं। :-)
ReplyDeleteवसीयत गजब की है ।
ReplyDeleteनया साल शुभ हो । इस वसीयत में और चीजें जुड़ें ।
शुभकामनाएं ।
हमने इसे मजाक ही समझा है.आप अभी हजारों साल जियें यही कामना है.
ReplyDeleteहमने इसे मजाक ही समझा है.आप अभी हजारों साल जियें यही कामना है
ReplyDeleteVASIYAT LIKHNE KA ANDAZ PASAND AAYA. MAGAR MUJHE TO YE MAZAK HI LAGA AAP HAMARE DIL ME REHTI HO DUWA HAI AAP HAZARON SAL NAHI MAGAR HAMESHA HANSI KHUSHI JEETI RAHEN AUR AAPKE SARE DUKH PARESHANIYAN KHATAM HON.
ReplyDeleteSHUAIB
कहाँ आप भी वसीयत के चक्कर मे पड़ गयी।
ReplyDeleteनया साल मुबारक हो।
घुघूती जी, नमस्कार
ReplyDeleteवसीयत अच्छी है। वसीयत वही कर सकते हैं, जिनके पास देने के लिए कुछ हो और जो देने का दिल रखते हैं। यह हमारे लिए गर्व की बात है कि महिलाएं भी अपनी वसीयत लिख रही हैं। अभी तक तो यही माना जाता है कि उनका है, क्या जो वे देंगी।
नये साल पर मेरी दुआ है कि आपकी विरासत के यह पन्ने आर्किव के किसी कोने में दब जाएं और हम यूं ही आपकी रचना से रू ब रू होते रहें।नए नए विचार नए नए आइडिया पढ़ें।
नासिरूद़दीन
सई है पन भई वसीयत जैसी चीज तब लिखनी चाहिए न जब बुजुर्गियत छाने सी लगी हो, अभी आपकी उमर ही क्या हुई है जो आप वसीयत के लोचे में पड़ गए। अभी तो खेलने खाने की उमर है न भई। खेलो खाओ और लांग ड्राईव पे जाओ [ कब आऊं लांग ड्राईव के लिए लेने ;) ]
ReplyDeleteनया साल पहले से बेहतर दे जाए। नव वर्ष की शुभकामनाएं
वसीयत लिखने का अन्दाज़ बहुत पसन्द आया. आपका मार्गदर्शन पाकर हम भी लिखने बैठते हैं. नव वर्ष पर शुभकामनाएं..
ReplyDeleteभई क्या कहने। वाह वाह।
ReplyDeleteनववर्ष की शुभकामनाएँ
ReplyDeleteपढ़कर सन्न हूं.. सचमुच? मेरे लिए आपने कुछ नहीं छोड़ा?
ReplyDeleteदेख रहा हूँ की पास कुछ अधिक न हो तो वसीयत बनाना बहुत मुश्किल नहीं होता.
ReplyDeleteअधिकांश भारतीये महिलाएं अगर वसीयत बनायें तो उनकी वसीयत आप से काफी मिलती जुलती होगी. आपने वसीयत लिख के एक क्रांति का सूत्रपात किया है. बहुत बढ़िया लेखन...धार दार व्यंग के साथ...वाह
नीरज
घुघुती जी ,
ReplyDeleteबहुत खूब , बहुत खूब , बहुत खूब
आनंद आया। पैना, तीखा व्यंग्य।
बढि़या जमाया. और वो कहानी का क्या हुआ? क्या बीच में ही छोड़ देंगीं? खैर आपकी मर्जी. आपको और घुघूता जी को नए साल की हार्दिक शुभकामनाएं.
ReplyDeleteआपको और घुघूता जी को नव वर्ष की शुभ-कामनायें...मुझे यह वसीयत अच्छी नही लगी...मजाक की तरह भी नही...आपको हमारी उम्र भी लग जाये...
ReplyDeleteबहुत बढिया व्यंग्य
ReplyDeleteदीपक भारतदीप
This reminds me a story titled as "Vasiyat" by Acharya Ram Chandra Shukla and in case you have access to the storey please send me the same I will be great full to you.
ReplyDeleteRegards,
Deoraj Chaturvedi