विदाई एक दुल्हन की
सारे दिन शहर घूम फिरकर बराती शाम को मुझे विदा कराने आ गए । मैं भी सुबह वाली लड़की से साड़ी वाली दुल्हन में परिवर्तित हो चुकी थी । टीका आदि लगाया गया और माँ ने कुछ कुमाँऊनी तरीके से मुझे विदा किया । लोगों ने अपने अपने बड़े रूमाल इस अवसर के लिए तैयार रखे थे । सब विदाई के रोने धोने और मुझे चुप कराने को तैयार दिख रहे थे। अफसोस, कि मैं उनकी यह तमन्ना पूरी ना कर पाई । मुझे तो अभी तक रोना और आँखों से नीर बहाना सीखना बाकी था। फिर हॉस्टेल में मैं अकेली रहती थी। वहाँ हमें एकल कमरे मिले हुए थे, सो घर से दूर अकेले रहने की भी आदत थी । अब तो मैं अपने पहले के मित्र और अब नये नवेले बने पति के साथ रहने जा रह थी सो मेरी तर्क बुद्धि ने समझा दिया कि रोने जैसी बात कुछ नहीं है । फिर कम फिल्में देखने के कारण मुझे ग्लिसरीन के प्रयोग के बारे में जानकारी भी नहीं थी । खैर लोग अन्तिम क्षण तक आशान्वित थे कि मैं शायद रूमालों को कृतार्थ कर ही दूँ । यदि मुझे जुकाम ही लगा होता तो भी यदि कोई बताता कि रोना आवश्यक है तो मैं शायद थोड़ा सुड़क सुड़क कर नाक ही रूमाल से रगड़ लेती । परन्तु मेरा शादियों में सम्मिलित होने के अनुभव का अभाव यहाँ आड़े आया । मैं रूमालों के दुख की चिन्ता किये बिना खुशी खुशी कार में बैठ गई । तब सब रूमाल जेबों या पर्सों के अन्दर चले गए और मैंने अपना रूमाल हिलाते हुए घर को बाय बाय कर दिया ।
पुणे से हमें बम्बई, तब मुम्बई नाम का पता नहीं था, ट्रेन से जाना था । थोड़ा समय अभी भी बाकी था इसलिये एक साड़ियों की दुकान से सबने साड़ियाँ खरीदी और पति ने भी मुझे जीवन की पहली साड़ी भेंट की । हम मुम्बई की ट्रेन पकड़ वहाँ पहुँच गए । दो तीन घंटे बाद दिल्ली की गाड़ी थी सो सबने खाना खाया और गाड़ी की प्रतीक्षा करने लगे । साथ में कुछ फल मिठाई आदि भी पैक की थीं सो उन्हें खाने के लिए खोला गया । देखा कि अन्य फलों के साथ में टोकरी में केले भी रखे गए थे । कुछ केले छोटी सी
यात्रा के दौरान शहीद हो गए थे व कुछ घायल । समस्या थी कि इनका क्या किया जाए तो ससुर जी ने निश्चय किया शहीदों को तो कचरे में डाल श्रद्धांजली दी जाए और घायलों के साथ कुछ मिठाई आदि लेकर किसी गरीब को दे दिया जाए । सो घुघूता जी और मैं, घुघूता जी के शब्दों में, मिस्टर गरीब की खोज में निकल पड़े । शायद उस दिन भिखारी भी हड़ताल पर थे । हम पूरा प्लेटफॉर्म घूम लिये कोई परन्तु कोई भिखारी नहीं मिला । भिखारी भी शायद हमारे खेमे में थे । अब साढ़े पाँच महीने के बिछड़े पक्षियों को स्टेशन से बाहर भिखारी ढूँढने का बहाना मिल गया और वे सबको बताकर बाहर उड़ गए । अब भिखारी ढूँढने की कोई जल्दी तो थी नहीं, सो पक्षी आराम से ट्रेन छूटने से कुछ मिनट पहले ही वापिस आए ।
अगली सुबह जब सब चाय पीने लगे तो मुझे भी दी गई । अपनी शादी के कार्ड छापने वाले की दुकान पर चाय कॉफी मना करने पर दूध दिये जाने की घटना ताजा याद थी । इस भय से कि कोई मुझे दूध की बोतल ही ना पकड़ा दे , मैंने चुपचाप चाय ले ली । जीवन में कभी कोई गरम पेय नहीं पिया था । दूध व सूप भी ठंडा करके ही पिया था । मैंने चाय का पहला घूँट भरा और मेरे मुँह के अंदर की सारी त्वचा झुलस कर एक च्युइंग गम की तरह गोला बन मेरे मुँह में इकट्ठा हो गई । मेरे कुछ भी खाने पीने को मना ना करने के सारे इरादे पर पानी फिर गया । अब तो सिवाय पानी के और ठंडे दूध के, जो किसी ने मुझे नहीं पूछा, मैं कुछ भी खा पी नहीं सक रही थी । उपवास करती, खाने में नखरा करने वाली दुल्हन नखरा करती करती ट्रेन यात्राकर ससुराल पहुँच गई ।
घुघूती बासूतीhttp://ghughutibasuti.blogspot.com/2007/12/blog-post_18.html
Saturday, December 29, 2007
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Ghughuteeji,
ReplyDeletekya adbhut yaadein hain aapke DULHAN ...Roop ki
Padh ker , hum bhee bhootkal ke dino ki or laut jane
ko badhya ho rahe hain ...Likhtee rahiye ...
sneh,
-- Lavanya
इस यात्रा की यादें सब के लिए एक जैसी होती हैं? पक्षियों की पुराने घोंसले से नए की ओर यात्रा की तरह।
ReplyDeleteवाह जी आपने मुझे मेरी शादी की याद दिला दी ..मेरा ससुराल पक्ष रो रहा था और मेरी अर्धाग्नी
ReplyDeleteबडे आराम के साथ उन सब से पूछ रही थी कि कहो तो रुक जाती हू..इतना दिल मत छोटा करो..और हम जॊ हाथ मे रुमाल लिये बीबी को चुप कराने के इंतजार मे थे..चुपचाप रुमाल को वापस जेब मे रखते नजर आ रहे थे..अपने आने वाले वक्त के लिये ..समझ चुके थे ना कि अब हमारे हसने के दिन गये....:)
मुझे तो लगा पक्षी अपनी ट्रेन छोड़ देंगे..समय रहते आ ही गये...
ReplyDeleteआप किसी फ़िल्म की कहानी तो नहीं लिख रहीं हैं?
ReplyDeleteशानदार तरीके से श्ब्दों को चित्रांकित किया है.
क्या बात है!! बहुत खूब!!
ReplyDeleteजानें क्यों,
यादों के जंगल में
एक एक तिनका भी
समेटे होता है
बड़ी बड़ी यादें
ऐसे ही तिनका दर तिनका
रखते जाइए हमारे सामने।
आपकी याददाश्त बड़ी सूक्ष्म है और लेखन बहुत स्पष्ट। अच्छा लगा।
ReplyDeleteमैं इसे एक अच्छी कहानी ही मानूंगा. क्या पूरी कहानी सुनाने वाली हैं? आपने यह भी नहीं बताया कि कितनी पुरानी बात है?
ReplyDeleteऔर ये घुघूता माने क्या... घुघूती का पुल्लिंग स्वरूप?
धन्यवाद लावण्या जी, द्विवेदी जी, अरुण जी, संजय बैंगाणी जी, कमलेश जी, संजीत जी, पाणडेय जीव संजय जी ।
ReplyDeleteसंजय जी, आप इसे कहानी भी मानकर चलें, तो भी ठीक है । हर जीवन एक कहानी ही तो होता है । पूरी तो नहीं सुनाऊँगी शायद, या शायद सुना भी दूँ , यदि पाठकों को वह बाँधे रख पाए । यह बात आज से लगभग ३० वर्ष पुरानी है । घुघूती के पति को मैंने यहाँ घुघूता जी कहा है । यदि आप दिल्ली के चिट्ठाकार मिलन में आए होते तो घुघूता जी से भी मिल लेते, वहाँ उन्होंने अपना परिचय ऐसे ही करवाया था ।
घुघूती बासूती
नयी नवेली दुलहन गजब ढा रही है, कइयों के मन में उनके अतीत की परतें खोल रही हैं बहुत अच्छा लग रहा हैं । पर ये तो बताइये शादी पूना में हुई थी?
ReplyDeleteअनिता जी, शादी पुणे में ही हुई थी ।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
अद्भुत और सिर्फ अद्भुत। आपके अंदाज ए बयाँ पर रश्क होता है।
ReplyDeleteसब की जिंदगी में कुछ न कुछ ऐसे पल होते हैं, जो जिंदगी को यादगार बना देते हैं। पर यकीन जानिये उसे बयान करने का अंदाज ही एक को दूसरे से अलग करता है। आपकी किस्सागोई जबरदस्त है। बिना किसी बनावटी तामझाम, ड्रामाई अंदाज और अल्फाज की जुगाली के आपने बड़ी खूबसूरती से जीवन की परत सबके सामने खोल दी है। मैंने दोनों पोस्ट एक साथ पढ़ी, इसलिए इसका स्वाद ही अलग मिला।
मेरी गुजारिश है जिंदगी की ऐसे और टुकड़ों को अल्फाज में गूँथिए। ताकि हम और रश्क करें।
आपने अपने जीवन की 30 साल पुरानी,यादगार घटना को,जिस सादगी ओर सच्चाई के साथ पाठकों के सामने,चुटकी लेते हुए रखा हॆ,काबिले तारीफ हॆ.परम्परा के नाम पर विदाई के समय लडकी का रोना-कोई जरुरी तो नहीं. पिछले साल लुधियाना में,मेरे मामाजी की लडकी की शादी थी.उसने पहले ही घोषणा कर रखी थी कि विदाई के समय वह बिल्कुल नहीं रोयेगी.विदाई के समय अन्य रिश्तेदार तो रोये,लेकिन वह बिल्कुल नहीं रोई.
ReplyDeleteGostei muito desse post e seu blog é muito interessante, vou passar por aqui sempre =) Depois dá uma passada lá no meu site, que é sobre o CresceNet, espero que goste. O endereço dele é http://www.provedorcrescenet.com . Um abraço.
ReplyDeleteAAPKE LIKHNE KA ANDAZ MUJHE BAHUT PASAND AAYA.
ReplyDeleteSHUAIB
ज्यों ज्यों पढ़ रहे हैं,बहुत बढ़िया लग रहा है।
ReplyDeleteआप और आपके परिवार को नव-वर्ष की ढेरों सारी शुभकामना,और बधाई.
ReplyDeleteHindi Sagar
मेरी टिप्पणी भी श्री संजय बेंगाणी जी की टिप्पणी से मेल खाती है। आप एवं आप के परिवार को नववर्ष की ढ़ेरों शुभकामऩाएं.....
ReplyDeleteप्रवीण चोपड़ा