ये आभासी नाते कुछ ऐसे होते हैं
अब दीये नहीं चाहिये कहने पर
अपने दीये से दूजे की ज्योत जलाते हैं
अब दीयों का क्या काम जब स्वयं मैं
अपनी राह जगमग कर सकती हूँ
तेरे दीये की ज्योत लिये
अब मैं जीवन पथ पर चल सकती हूँ
जब फिर से धीमी पड़े ज्योत
तो तुझ तक राह जो जाती है
उस पर चलने पर ही से मुझे
आधे रास्ते में तुम मिल जाते हो
और धीमी पड़ी ज्योत जलाते हो ।
घुगूती बासूती
Sunday, July 01, 2007
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अह्हा!!! बहुत गहरी रचना. बधाई.
ReplyDeleteअब दीयों का क्या काम जब स्वयं मैं
ReplyDeleteअपनी राह जगमग कर सकती हूँ
ये पंक्तियाँ बहुत पसंद आयी।
बहुत ही गहरा अर्थ है।
आपकी कविता को पढ़ा गया है. टिप्पणी में क्या लिखुं सुझ नहीं रहा.
ReplyDeleteबहुत खूब, आत्मविश्वास के बाद भी किसी को उसकी अहमियत बतलाती बढ़िया रचना!!
ReplyDeleteघुघूती जी क्या खूबसूरत लिखा है आपने…दिल खुश हो गया…
ReplyDeleteअब दीयों का क्या काम जब स्वयं मैं
अपनी राह जगमग कर सकती हूँ
आत्मविश्वास जगाती हुई कविता…
शानू
"अब दीयो का क्या काम॰॰॰"
ReplyDeleteआत्मविश्वास-मय इस "विशिष्ट शैली" में लिखी रचना हेतु बधाई स्वीकार करें ।
आर्यमनु ।
जोत से जोत जलाते चलो! :)
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