Sunday, July 01, 2007

ये आभासी नाते

ये आभासी नाते कुछ ऐसे होते हैं
अब दीये नहीं चाहिये कहने पर
अपने दीये से दूजे की ज्योत जलाते हैं
अब दीयों का क्या काम जब स्वयं मैं
अपनी राह जगमग कर सकती हूँ
तेरे दीये की ज्योत लिये
अब मैं जीवन पथ पर चल सकती हूँ
जब फिर से धीमी पड़े ज्योत
तो तुझ तक राह जो जाती है
उस पर चलने पर ही से मुझे
आधे रास्ते में तुम मिल जाते हो
और धीमी पड़ी ज्योत जलाते हो ।
घुगूती बासूती

7 comments:

  1. अह्हा!!! बहुत गहरी रचना. बधाई.

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  2. अब दीयों का क्या काम जब स्वयं मैं
    अपनी राह जगमग कर सकती हूँ

    ये पंक्तियाँ बहुत पसंद आयी।
    बहुत ही गहरा अर्थ है।

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  3. आपकी कविता को पढ़ा गया है. टिप्पणी में क्या लिखुं सुझ नहीं रहा.

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  4. बहुत खूब, आत्मविश्वास के बाद भी किसी को उसकी अहमियत बतलाती बढ़िया रचना!!

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  5. घुघूती जी क्या खूबसूरत लिखा है आपने…दिल खुश हो गया…
    अब दीयों का क्या काम जब स्वयं मैं
    अपनी राह जगमग कर सकती हूँ
    आत्मविश्वास जगाती हुई कविता…

    शानू

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  6. "अब दीयो का क्या काम॰॰॰"
    आत्मविश्वास-मय इस "विशिष्ट शैली" में लिखी रचना हेतु बधाई स्वीकार करें ।
    आर्यमनु ।

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  7. जोत से जोत जलाते चलो! :)

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