Tuesday, May 15, 2007

कायर

कितना सरल है किसी को बुजदिल कह देना ! कभी मृत्यु को करीब से देखा है ? कभी हाथ में विष उठाया है ? कभी गले में फंदा डाल अपने आप से बहस की है ? कभी मरना चाहकर भी अपने परिवार के बारे में सोचकर मरने का कार्यक्रम स्थगित या रद्द किया है ? जिस जान से ९० साल के अधमरे बीमार वृद्ध तक चिपके रहते हैं उसी जान को जब कोई किशोर एक झटके में दे डालता है तो उसकी मनःदशा क्या रही होगी ? बस वह पल यदि निकल जाता तो कल वह फिर युद्ध में जूझने को निकल पड़ता । सोचो कहाँ हम माता पिता में कमी रह गई ? कहाँ हमारी शिक्षा प्रणाली में कमी रह गई ? क्यों हम अपने बच्चों को आश्वस्त नहीं कर सके कि जो भी हो ,सफल रहें या असफल, हर हाल में वे हमारे पास वापिस आ सकते हैं और नए सिरे से जीवन आरम्भ कर सकते हैं , कि हम उन पर अपनी जजमेंट नहीं पास करेंगे, कि जीवन बहुत बड़ा और लम्बा है, कि एक जगह असफल भी रहो या आइ आइ टी जैसी जगह को भी छोड़कर यदि तुम कुछ और करना चाहोगे तो भी हम तुम्हारे साथ हैं ?
इन प्रश्नों के उत्तर ढूँढो । बच्चों पर जजमेंट न पास करो ।
बस इन्हीं भावों को लिए कविताएँ रच डालीं । आज एक प्रस्तुत है शेष फिर पोस्ट करूँगी ।
घुघूती बासूती

कायर


मुझे कायर कहने वालो
मेरा जीवन जीकर देखो
बस इक झलक देख ही
मेरे जीवन की शायद
तुम इतना घबरा जाओगे
मेरे जीवन में न तुम
कभी वापिस आ पाओगे,
आओ तुमको भी अपने
मरने की झलक दिखाऊँ
आओ देखो तुम भी आकर
मुझे ए कायर कहने वालो ।

देखो कैसे हो जाता है जीवन बेमानी
कैसे फिर जाता है आशाओं पर पानी
कैसे इक बालक की दी जाती कुर्बानी
कैसे माता पिता ने न मेरी इच्छा जानी ।

मैंने बनना चाहा था इक चित्रकार
पर मुझे पकड़ाए चीर फाड़ के औजार
कितना मैंने उनको समझाना चाहा
सुन्दर चित्र अपने दिखाए बारम्बार
पर वे ना माने मेरे दिल की बात
पढ़ने को कहते थे मुझे वे दिनरात
पहुँच गया मैं पूरे करने उनके सपने
वे सपने जो ना थे मेरे कभी अपने ।

हाथ में चाकू था मुँह में उबकाई
कितना कहा था पापा से मैंने,
बात पर उन्हें नहीं समझ में आई,
उस दिन हद हो गई जब मृत स्त्री
एक काटने को मुझे पकड़ाई
मेरे सपनों में भी वह आती थी
कैसे काटूँ उसको मैं
चीर फाड़ ना कभी मुझे भाई
रात रात ना सो पाता था
उसका चेहरा नजर आता था
लिखा पत्र पापा को मैंने
ना होगी मुझसे ये पढ़ाई
वे बोले बेटा कैसे भी हो
तुम कर लो अपनी पढ़ाई
मेरा बेटा डॉक्टर होगा तो
देखो कितनी होगी बड़ाई
ना पूरी करो जो तुम शिक्षा
कितनी होगी जग हँसाई ।

उस दिन हाथ मेरे काँप रहे थे
कितनी सबने थी हँसी उड़ाई
फिर से मैं था बोला पापा
मैं न बन सकूँगा कभी कसाई
पर पापा बोले बन जा तू डॉक्टर
इसमें ही तेरी और हमारी भलाई
भाग गया था मैं अपने घर
पर फुसलाकर भेजा मुझको वापिस
ना झेल सका यह सब मैं जब
तब अपने गले में डाली रस्सी
उसमें मैंने मजबूत गाँठ लगाई
खिसका दी कुरसी पैरों से
जीभ मेरी थी बाहर आई
डाल कर देखो इक पल फंदा
या फिर इक उँगली को ही
तुम कस लो रबर बैंड से
और देखो कितना कष्ट
है इसमें ओ मेरे भाई
जीना मैंने भी चाहा था
पर ना इन शर्तों पर
मैंने जीना चाहा
बन चित्रकार जी तो लेता
पर यह काटम काट न
कभी मुझे भाई ।

सो अन्त हुआ मेरे जीवन का
बिना चाहत अपनी पूरी कर
मुक्ति है आशाओं से मैंने पाई
ओ मुझपर व्यंग्य करने वालो
आओ मेरा जीवन जी लो
छोड़ गया हूँ स्वप्न अधूरे
आओ कुछ तो तुम भी जी लो ।


घुघूती बासूती

20 comments:

  1. बहुत गजब. बहते हुये भावों को बड़े जतन से शब्दों में आपने बाँधा है. यह आपकी ताकत है. बहुत बधाई. बहुत बेहतरीन उत्प्रेरक रचना.

    ReplyDelete
  2. Anonymous6:27 am

    ये सही है कि व्यक्ति ने अपनी जीवन समाप्त कर दी केवल इसलिये कि उसे चित्रकार ना बन डॉक्टर बनना. मेरे विचार से ये भी कोई वीरता नहीं है.ये सच है कि खुद की जान ले लेना भी आसान नहीं है पर जान ले लेना ,सिर्फ इस जीवन से परेशान होकर ,क्या कायरता नहीं है? हमें तो सिखाना चाहिये कि

    "मुश्किलें कितनी खड़ी हैं राह में ,
    फिर भी अपनी राह मैं खुद ही बनाता,
    जी लेना इस जीवन को औरों के ही खातिर,
    इसलिये मर कर भी मैं बस जिये जाता "

    माफ कीजिये ...आपके भाव सुन्दर हैं पर मैं उनसे सहमत नहीं .

    ReplyDelete
  3. Anonymous6:30 am

    मात्रा की कुछ गलतियां हैं उन्हें सुधार रहा हूँ.

    ये सही है कि व्यक्ति ने अपनी जीवन-लीला समाप्त कर दी केवल इसलिये कि उसे चित्रकार ना बन डॉक्टर बनना पड़ा. मेरे विचार से ये भी कोई वीरता नहीं है.ये सच है कि खुद की जान ले लेना भी आसान नहीं है पर जान ले लेना ,सिर्फ इस जीवन से परेशान होकर ,क्या कायरता नहीं है? हमें तो सिखाना चाहिये कि

    "मुश्किलें कितनी खड़ी हैं राह में ,
    फिर भी अपनी राह मैं खुद ही बनाता,
    जी लेना इस जीवन को औरों के ही खातिर,
    इसलिये मर कर भी मैं बस जिये जाता "

    माफ कीजिये ...आपके भाव सुन्दर हैं पर मैं उनसे सहमत नहीं .

    ReplyDelete
  4. काकेश जी से एग्री नहीं हो पा रहा हूं. आल्हाद और अवसाद दोनो झेले हैं मैने. कसक है कि बासूती जी की जगह मैं क्यों नहीं लिख पाया ऐसी पोस्ट.

    ReplyDelete
  5. Anonymous8:13 am

    मैं तो काकेश जी से ही सहमत हूं.
    ये तो पलायन है. संघर्ष से मुंह छिपाकर भागना है. यदि आपकी राह में कोई रोड़ा है तो उसे हटाओ, लक्ष्य को प्राप्त करो.

    जान दे देना बहुत आसान है. वक्ती जुनुन है. हम में से हर किसी ने कभी न कभी अपनी जान दे देनी चाही है. बस एक जरा सी कसर ही तो रह गयी होगी हमारे जान दे देने में! हमारी वह बहादुरी तो नहीं थी. बहादुरी वह है कि हम जी रहे हैं.

    अवसाद और आल्हाद दोनों जरूरी हैं, अवसाद के बिना आल्हाद की क्या कीमत ? दोनों पल जियो. ये तो अनुभूतियां हैं.

    जान दे देना जिन्दगी की लड़ाई से भगोड़ापन है.

    भगोड़े कभी विजेता नहीं होते, बहादुर नहीं होते, कायर ही कहलाते हैं.

    ReplyDelete
  6. दीदी फ़िर से आपकी बहुत अच्छी कविता पढने को मिली पर अन्तिम पद पसंद नही आया

    ReplyDelete
  7. सुन्दर. काफी हद तक सही कहा है, मरना आसान नहीं मगर तभी जब आप होश में हो.
    परिक्षाओ में फेल होने का मतलब जिवन में अब कुछ नहीं बचा, इस सोच को समाप्त करना होगा.
    पढ़ेलिखे अच्छी नौकरी पा सकते है, मगर कम पढ़ालिखा सम्भव है उन्हे नौकरी दे...

    ReplyDelete
  8. बहुत ही उत्कृष्ट रचना है जो दिल को हिला देती है कहीं ना कहीं माँ-बाप भी जिम्मेदार होते है पर क्या जान देने से हर समस्या ख़त्म हो जाती है। जीवन से हार मानना कोई बहादुरी नही है। हिम्मत से हर मुश्किल का सामना करना चाहिऐ। जान देकर मुक्ति पा ली पर क्या कभी उन माँ- बाप के बारे सोचा ?

    ReplyDelete
  9. Anonymous12:14 pm

    घुघूती बासूती,
    मुझमें इन कविताओं से भय क्यों पैदा हुआ ? मृत्यु का इतनी करीब से और और बारीकी से आपने वर्णन किया कि मुझे लगा कि कवि इस तथ्य से आकर्षित हुई होगी - यह एक अज्ञात सी घबड़ाहट का कारण था । मृत्यु पर कविता और लेख मैंने पढ़े हैं - दुर्लभ लोग लिखते हैं इस विषय पर। कविता मुझ पर इतना प्रभाव डालती है !

    ReplyDelete
  10. धन्यवाद उड़न तश्तरी जी, राकेश जी, काकेश जी ,पाण्डे जी, धुर विरोधी जी, अरुण जी व संजय जी । काकेश जी, धुर विरोधी जी व संजय जी, कविता से पहले मैंने कुछ पंक्तियाँ लिख इस कविता का संदर्भ व प्रसंग लिख दिया था । मैं आत्महत्या की प्रशंसा नहीं कर रही । मैं केवल माता पिता, समाज व आपसे अनुरोध कर रही हूँ कि इन लोगों को समझें, इन पर कटाक्ष न कीजिये, इन्हें ऐसी स्थिति में मत पहुँचाएँ कि ये ऐसा कदम उठाने को मजबूर हों । जो लोग मृत्यु को गले लगा सकते हैं यदि वे जीवित रहते तो समाज का एक अच्छा , सफल व संवेदनशील हिस्सा बन सकते थे ।
    घुघूती बासूती

    ReplyDelete
  11. अच्छी भावाभिव्यक्ति।
    एक सामान्य किंतु भावुक इंसान के जीवन में ऐसे मौके आते है जब वह अपनी ही असफ़लताओं से इतना निराश हो जाता है कि अपना जीवन समाप्त करने की सोचने लगता है, क्योंकि उस पर परिवार का, अपने अपनो का दबाव भी रहता है कि नहीं तुम्हें यह करना ही है, और ऐसे मे कोई बड़ी असफ़लता उस इंसान को इस तरह तोड़ देती है कि उसे और कोई रास्ता सूझता ही नहीं

    ReplyDelete
  12. सुन्दर रचना,
    आपने शब्दों को इस तरह से बांधा है कि मुझे लगा मैने एक पूर्ण जीवन व मरण देख लिया.....

    ReplyDelete
  13. हमेशा की तरह एक अच्छी कविता…।

    ReplyDelete
  14. घुघुति जी,
    बड़ी विचारणीय रचना है। इसमें प्रस्तुत दृष्टांत से बहुत, बहुत कुछ मिलता जुलता मेरे एक अति निकट सम्बन्धी ने झेला है, अपनी महत्वाकांक्षाओं को अपने मेधावी पुत्र पर डालने का दुखद परिणाम।

    ReplyDelete
  15. उत्कृष्ट रचना

    ReplyDelete
  16. कह नहीं सकता , कुछ कमी मेरी ही समझ मे होगी, मेरी कहानी और अपकी कविता का कथ्य काफ़ी कुछ एक होते हुये भी, निश्कर्ष पूर्णरूपेण भिन्न है.. आप कायर के पक्ष मे हैं, और किसी ना किसी भांति उसकी कायरता को न्यायसंगत भी बता रही हैं । मेरी कहानी दुविधा मे है, अन्ततः विद्रोह करती है, करना चाहती है, कर पाती नहीं पर समस्या से मुह मोडने पलायन हर सम्भव का विरोध करती है । एक जिन्दगी बस एक जिन्दगी नहीं एक संसार है अपने आप मे, और संसार पलायन से तो नहीं चलेगा..आपकी कविता का विरोध जितना हो सकेगा मैं करूंगा...

    ReplyDelete
  17. पकी कविता में आपकी सोच झलकती है। आपमें चीजों को महसूसने की शक्ति है, कहने की ललक है, पर शायद अन्त में तुक मिलाने की भी चाह भी कहीं भीतर दबी हुयी है। आप यदि तुक मिलाने की इस छोटी सी चाह त्याग दें, तो आपकी कवितयें और प्रभावी हो सकती है।

    ReplyDelete
  18. आपकी कविता में आपकी सोच झलकती है। आपमें चीजों को महसूसने की शक्ति है, कहने की ललक है, पर शायद अन्त में तुक मिलाने की भी चाह भी कहीं भीतर दबी हुयी है। आप यदि तुक मिलाने की इस छोटी सी चाह त्याग दें, तो आपकी कवितयें और प्रभावी हो सकती है।

    ReplyDelete
  19. क्या कहूँ?

    सच मे वो कायर तो होते ही हैं, क्यूँकि उनको तिल-तिल के मरना पसन्द नही होता है, इसलिये एक बार मे मौत को गले लगा लेते हैं, उन्हे चाहिये की वो मरे रोज रोज मरे पर लोगो के लिये जिन्दा रहें ताकि उनको बहादुर कहा जाये।

    शायद!!!

    ReplyDelete