Monday, February 12, 2007

कविता : वह मैं भी तो हो सकती थी

वह सड़क के किनारे
कचरेदान में से
कुछ खोज रही है।
फटे कपड़े, उलझे बाल,
मैल की परतों जमा शरीर,
भूखा पेट
सूनी आँखें ।
और वह उसकी साथी,
वह फिर भी
खिलखिला रही है ।
शायद उसे कचरे में
कुछ छिपा खजाना
मिल गया है ।
शायद एक बिस्किट का पैकेट,
या कोई साबुत चूड़ी
या कोई पहनने लायक कपड़ा ।

वह जेब कतर कर
भाग रहा है।
पीछे लोग 'पकड़ो'
चिल्लाते भाग रहे हैं।
शायद जेब कतरना
उसकी मजबूरी है
या शायद उसका शौक ।

वह सजधजकर
ग्राहक ढूँढ रही है।
पुता हुआ चेहरा,
कुछ लटके झटके,
विचित्र से कपड़े
विचित्र हाव भाव ।
कुछ लोग उससे कतरा कर
दूर से गुजर रहें हैं।
कुछ उसे देख
खींसें निपोर रहे हैं।

वह ना जाने कितने
बच्चों को मार
एक समाचार
बन गया है,
एक नर पिशाच
बन गया है।
उसका चेहरा
हमारे स्मृति पटल
पर खुद गया है।

वह अपने बच्चे को
चन्द रुपयों के लिये
बेच चुकी है।
वह अपने पति को
मौत के घाट
उतार चुकी है।
वह अपनी बहू को
जला कर राख
कर चुकी है।

वह रिश्वत
खा रहा है
चारा तो चारा
वह तो भैंस
को भी निगल
एक डकार तक
न ले रहा है।

वह एक लड़ाकू
पायलट बनने के
सपने देख रहा है।
जानता है,
मिग आकाश से
ऐसे टपकते हैं
जैसे सड़े फल
पेड़ से धरती पर
गिरते हैं।
फिर भी आँखों में
सपने हैं,
देश के लिये
जीने मरने के।

वह एक नेता है
देश को कुछ देता है
और देश का
वह बहुत कुछ
ले लेता है।
आज इधर है
तो कल उधर
उसे देख तो
बेपैन्दी का लोटा भी
बहुत कुछ सीख लेता है।

इन सबमें से
कोई भी
मैं हो सकती थी।
यदि मैं
उनकी जगह खड़ी होती
तो वह ही हो सकती थीं
शायद कुछ उन्नीस
या इक्कीस
पर बहुत कुछ
वह ही हो सकती थी।

मैंने उनका जीवन
जिया नहीं,
उनके अनुभव
जिये नहीं,
मैंने उनका कल
देखा नहीं,
उनका यह विशेष
उनकापन नहीं झेला।

मैं किसी अलग
भगवान या अल्लाह
को मान सकती थी,
मैं हिन्दु या मुसलमान
सिख या क्रिस्तान
हो सकती थी।
मस्जिद का ढहना
या बनना ,
मन्दिर का निर्माण
या न हो पाना निर्माण
किसी और रूप में
ले सकती थी।

बुश या लादेन
कुछ भी हो सकती थी।
और जो भी होती,
मैं अपने आप को
हर हाल में
सही ठहरा सकती थी।

पर मैं, मैं हूँ
क्योंकि
मैं किन्हीं और
हालातों और परिवेश
की उपज हूँ।
किन्हीं और शुक्राणु और
अन्ड का मेल हूँ।
यदि वह शुक्राणु विशेष
ना दौड़ में प्रथम आता
तो कुछ और होती।
यदि कुछ जीन यहाँ से वहाँ होते
तो कुछ और होती।
यदि मेरे मस्तिष्क के तार
कुछ अलग जुड़ते
तो भी कुछ और होती।

यदि वह घटना या
दुर्घटना, मेरे जीवन
में घटित होती,
या जो घटीं
वे ना घटी होतीं,
या फिर हालात
थोड़े भी कुछ और होते
तो मैं कुछ और होतीं ।
मैं शायद इनमें से
कोई भी होती।
हाँ,
वह मैं भी हो सकती थी ।

घुघूती बासूती

23 comments:

  1. यूं होता तो क्या होता…?
    नये तरीके से की गई प्रस्तुती सराहनीय है…लगभग हर कोणे को छूआ है…कुछ भाव को तो जी गईं हैं आप…यह भी एक कला है अच्छे लेखन की…बधाई!!

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  2. धन्यवाद डिवाइन इन्डिया जी , आपकी विवेचना की सदा प्रतीक्षा रहेगी ।
    घुघूती बासूती

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  3. Anonymous7:24 pm

    बहुत बढिया कविता है, बधाई

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  4. Anonymous9:40 pm

    you touch toomany topics be concentrate on one and cut them short in starting it look like you telling the conditiond of a woman which you recognice around you and then the poem turns to be the present condition of the country corupption and suddenty it get internainal incident involved. start was good but i can say very god then it s lost its strength and shows vague uneasiness

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  5. सुन्दर कविता, शुरु से अंत तक बांधे रखा।

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  6. धन्यवाद शुएब जी ।
    धन्यवाद मन जी । आपकी बात बिल्कुल सही है । हो सका तो सुधारने की चेष्टा करूँगी । मुझे प्रसन्नता है कि आपने धयान से कविता पढ़ी और उसके त्रुटियाँ मुझे बताईं ।
    घुघूती बासूती

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  7. धन्यवाद श्रीश जी ।
    घुघूती बासूती

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  8. बहुत सधी हुई रचना है, बधाई और यह कहलाई ६ में से पहली टिप्पणी. :) आप तो समझ ही गई होंगी. :)

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  9. बिल्कुल समझ गई । और लगता है एक हथियार हाथ लग गया है , उड़न तश्तरी जी ! खैर, बहुत धन्यवाद । :)
    घुघूती बासूती

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  10. शुरू से अंत तक इस रचना ने बाँधे रखा ...सही और सच से परिचित कराती आपकी यह रचना बहुत कुछ कह गयी ...शुक्रिया

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  11. धन्यवाद अनुराग जी और रंजू जी ।
    घुघूती बासूती
    ghughutibasuti.blogspot.com

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  12. Anonymous8:09 pm

    घुघूती बासूती जी, किसी के कुछ से कुछ हो जाने और इस हो जाने में हालात के कारक होनेका सही चित्रण आपकी रचना में। हर एक लाईन दुसरे लाईन के लिए उत्सुकता सी जगाती है, और यही एक अच्छी कविता की पहचान होती है।
    समीक्षक या आलोचक वाले दृष्टिकोण के अभाव में बतौर एक पाठक बस यही कह सकता हुं।
    शुभकामनाओं के साथ

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  13. बहुत कुछ समेट लिया आपकी कविता ने अपने आप मे.. सवाल भी कर गयी और जवाब भी बनी रही.. सच्मुच जीवंत है हर भाव.. अभिभूत हुं..

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  14. धन्यवाद संजीत जी व मान्या जी । आपने तो बहुत उदार टिप्पणियाँ की हैं । बहुत बहुत धन्यवाद ।
    घुघूती बासूती

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  15. उन सारे समाचारों को मैनें पढ लिया देख लिया जिसे मैंने न ही पढा था और न ही देखा था जिसका कारण यही है कि वह मैं भी हो सकती थी
    मैंने उनकापन नहीं जिया है
    सच है परिस्थितियाँ और संदर्भ शायद मुझे भी वे बना सकते थे
    मेरे विचार आप से मिलते हैं
    बहुत सुन्दर सरल और सत्य कविता बधाई
    मेरी कविताओं पर आप के विचारों का इंतज़ार रहेगा

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  16. Anonymous9:08 pm

    आधुनिक समाज का हर पहलू छुआ है आपने!सबसे ज्यादा मुझे ये बात पसँद आई कि आपने कहा वो मै भी हो सकती थी! बहुत से अपराध परिस्थितिवश होते हैं शायद.

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  17. धन्यवाद स्वर्ण ज्योति जी व रचना जी । आपने कविता को पढ़ा भी व समझा भी व सराहा भी ।
    घुघूती बासूती
    ghughutibasuti.blogspot.com

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  18. कविता पढ कर बस ऐसा लगा कि कवि हर कहीं जो भी है, सब कुछ, हर कुछ बस एक chemical लोचा भर मानने पर भी उतारू क्यों है । सच जाने क्या है, पर अपने स्व का इतना उदारीकरण की वह कुछ भी हो सकता था, बस हालात, जीन्स, शुक्राणु-अन्ड कहीं इधर से उधर होते, मैं पूरी तरह से इत्तिफ़ाक नहीं रखता । हर बार हम वही नहीं होते जो हमारे हालात हमे बनाते हैं, हमार स्व हम भी काफ़ी हद तक बनाते हैं । खैर यह बात आपकी कविता से थोड़ी इतर हो गयी ।
    "आत्मानं सर्व्भूतेषु" जैसी बात अनुभव कर सका हूं, जाने यही कवि की भी मन्शा रही या नहीं । फ्रणी मात्र मे बस अपने को ही देखो...
    वैचारिक कविता पर विचार जागे, शायद यही इस कविता की सफ़लता है...और सबसे बड़ी बात ये लगी कि प्रश्न हैं बस, उत्तरों के प्रति कोई आग्रह नहीं.... कवि की विचार शून्यता भी हो सकती है, विचारों की इस हद तक आ चुकने के बाद या उत्तर पाने का कोई मोह ही ना रहा हो..कविता बान्धती है..जोड़ती है अपने साथ अपने महौल मे..

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  19. उपस्थित जी, यदि आप जैसे पढ़ने वाले हों तो लिखना सार्थक हो जाता है । आपकी विवेचना स्वयं मुझे एक बार फिर अपनी कविता व अपने स्व पर विचार करने को बाध्य करते हैं । इतना विचारशील विश्लेषण करने के लिए धनयवाद । भविष्य में भी करते रहें तो आपका आभार होगा ।
    घुघूती बासूती
    ghughutibasuti.blogspot.com

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  20. आपकी रचना बहुआयामी एव सराहनीय है. मेरा एसा मानना है कि यदि एक ही प्रस‍न्ग का प्रसार किया जाये तो रचना अधिक प्रभावी हो जाती है, हो सकता है मेरा विचार सही न हो, इसकोए अन्य्था न ले‍.

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  21. धन्यवाद मोहिन्दर जी, कोई पढ़े व उस पर विवेचना करे, यह तो सौभाग्य की बात है ।अन्यथा कैसे ले सकती हूँ । आपके सुझाव का ध्यान रखूँगी ।
    घुघूती बासूती
    ghughutibasuti.blogspot.com
    miredmiragemusings.blogspot.com/

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  22. श्रेष्ठतम रचनाओं में से एक!

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