Wednesday, March 18, 2009

जेड गुडी के सन्दर्भ में.... मृत्यु क्या है, किसकी झेलनी सरल है अपनी या किसी अपने की ? अपना जाना कठिन है या अपनों को छोड़कर जाना ?

अधिकतर लोग केवल एक दो अपनों के सामने संसार को छोड़कर जाते हैं। कुछ भाग्यवान चुपचाप सोए हुए में चले जाते हैं। कुछ दुर्भाग्यवान जानते हैं कि अन्त समय आ गया है किन्तु वे अकेले होते हैं। और अकेले में ही संसार से विदा हो जाते हैं।

मृत्यु सत्य है, पहला और अन्तिम सत्य। संसार में केवल यही एक घटना है जिसका घटना निश्चित है। आश्चर्य की बात है कि जिन बातों की निश्चितता के बारे में हमें कोई पक्का विश्वास नहीं होता उनकी तैयारी हम करते हैं। उनसे निपटने के लिए माता पिता, अध्यापक व अन्य विशेषज्ञ हमें तैयार करवाते हैं। स्कूलों में फायर ड्रिल होती है, भूकम्प आने पर क्या किया जाए सीखते हैं, कई लोग सी पी आर (Cardiopulmonary resuscitation) सीखते, सिखाते हैं ताकि यदि किसी की हृदयगति रुके तो उसकी सहायता कर सकें, कुछ आपात स्थिति के लिए फर्स्ट एड सीखते हैं। परन्तु कोई हमें मृत्यु (अपनी या अपने प्रियजन की ) का सामना कैसे करें नहीं सिखाता, न ही कैसे मरें सिखाता।

परन्तु लगता है अब उस समय का अन्त हो रहा है। अब हम टी वी पर, नेट पर लोगों को मृत्यु का सामना करते, मरते देख सकते हैं। कुछ महीने पहले एक विडीओ चैट रूम में लोगों ने एक व्यक्ति को आत्महत्या करते देखा। अब हम उन्हें इस अन्तिम सत्य से भी धन कमाकर अपने बच्चों का भविष्य सुरक्षित करते देख सकते हैं। एक स्त्री हैं जेड गुडी। रिएलिटी टी वी की जानी मानी कलाकार हैं। सर्वाइकल कैंसर से किसी भी क्षण उनकी मृत्यु हो सकती है। कुछ ही दिन पहले उनका विवाह हुआ। उनकी बीमारी, विवाह आदि के फोटो व विडीओ देखे जा सकते हैं। उनकी बिगड़ती हालत देखी जा सकती है।

मृत्यु व जन्म जैसे निजी क्षण भी अब सार्वजनिक हो रहे हैं। सही या गलत कहना तो कठिन है। क्या यह हमें अपने सबसे बड़े सत्य का सामना करने के लिए बेहतर तैयार कर पाएँगे ?

मृत्यु को भारतीय संस्कृति में आत्मा के परिधान बदलने के समान माना गया है। क्योंकि आत्मा को अमर माना जाता है सो उसके घिसे पुराने वस्त्रों को बदल नए वस्त्र धारण करने के लिए कुछ समय के प्रस्थान को दुखी होने का कारण तो नहीं माना जा सकता। शायद इसीलिए भारतीय मृत्यु को अपेक्षाकृत अधिक सहजता से स्वीकार करते हैं, विशेषकर तब जब मृतक एक लम्बा सुखी जीवन जीकर विदा लेता है। कई भारतीय समाजों में तो ऐसे वृद्ध की अन्तिम यात्रा बैंड बाजे के साथ निकलती है।

शायद यही कारण है कि हम भारतीय अधिक कष्ट में होने पर मृत्यु को गले लगाने को अधिक आतुर होते हैं। प्रायः यह भी देखा जाता है कि यदि कोई अधिक कष्ट में हो या बचने पर उसका जीवन अधिक कष्टप्रद या अपाहिज होने की सम्भावना हो तो लोग यहाँ तक कहते सुने जाते हैं कि इससे तो बेहतर होता की मर जाता। पश्चिमी समाज में ऐसा भाग्यवाद ( fatalism ) कम ही देखा जाता है। भारत में किसी स्टीफन हॉकिंग देखने की सम्भावना कम ही है।

यदि जन्म से पहले को अस्तित्व से पहले की स्थिति माना जाए तो मृत्यु को अस्तित्व के बाद की स्थिति माना जा सकता है। तो ये दोनों स्थितियाँ एक दूसरे का प्रतिबिम्ब भी मानी जा सकती हैं। यदि दुखों व कष्टों से बचना चाहा जाए तो मृत्यु मुक्ति है। क्योंकि मृत्यु के बाद कोई हानि नहीं पहुँचाई जा सकती। वैसे जन्म के साथ ही मृत्यु की क्रिया भी आरम्भ हो जाती है। कोशिकाएँ मरती हैं, उम्र बढ़ती नहीं हर पल के साथ कम होती जाती है। मृत्यु इस क्रिया की सम्पूर्णता भी कही जा सकती है।

श्रीमद्भगवद् गीता के अनुसार ..
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतो‍‌Sयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥


अर्थात यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मती है और न ही मरती है व न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाली ही है; क्योंकि यह अजन्मी, नित्य,सनातन व पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर यह मारी नहीं जाती।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोSपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही॥


अर्थात जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त करती है।

यदि यह सब सोचकर चला जाए तो जेड गुडी का अपने मरने की प्रक्रिया को सारे संसार में प्रसारित करना, उससे अपने दो पुत्रों के लिए धन कमाकर छोड़ जाना भी शायद गलत नहीं है। वे तो केवल अपने जीवन रूपी नाटक के पटाक्षेप को अपने पिछले कुछ वर्षों के जीवन की तरह हमें दिखा रही हैं। यही उनका कर्म रहा है व वे उसे अन्त तक कर रही हैं। क्या वे कर्मयोगी कहलाएँगी?

यदि आत्मा है और आत्मा को शान्ति अशान्ति जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है तो उनकी आत्मा को शान्ति प्राप्त हो यही कामना की जा सकती है। वैसे समाचारों के अनुसार वे अभी भी मृत्यु से संघर्षरत हैं। उन्हें कम से कम कष्ट हो और यदि वे लोगों के मन से मृत्यु का भय भी निकाल सकें तो और भी बेहतर होगा।

घुघूती बासूती

33 comments:

  1. देही, देहिनः और शरीरिणः का अर्थ सूक्ष्म कण जिन से देह/शरीर का निर्माण होता है, भी है। इसलिए इस का अर्थ यह भी है कि पदार्थ के कण तो अविनाशी हैं, वे केवल अपना संयोजन बदल कर नए रूपों का निर्माण करते रहते हैं। कण सत्य हैं और रूप इसीलिए मिथ्या।

    ReplyDelete
  2. इस पृष्ट को बुकमार्क कर लिया है.. मेरे प्रिय विषय पर लिखा है आपने.. जेड गुडी के लिए सिर्फ़ प्रार्थना कर सकता हूँ..

    ReplyDelete
  3. बहुत सुन्दर लिखा जी।
    बाकी, जेड गुडी तो टिटिलेटिंग पर्सनालिटी हैं। उनकी क्या कहें। उनका तो सर्वाइकल केंसर भी उन्हे पैसे दिला जायेगा। उन्हें कर्मयोगी कहने में हिचक है।

    ReplyDelete
  4. ...आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मती है और न ही मरती है व न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाली ही है; क्योंकि यह अजन्मी, नित्य,सनातन व पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर यह मारी नहीं जाती।


    wakai mrityu ki taiyaari katre dekhna....
    ...kitna azeeb hridya vidrak ehsaas hai, jade goody ki mrityu to vastavikta hai par mera to anand jaise movie dekhne ke baad hi aankho mein paani aa jata hai.


    jade goodi ki reality bhi kisi reality show se kam nahi.

    RIP ALL THE GONE LOVED ONES.

    ReplyDelete
  5. पूनर्जन्म की अवधारणा मृत्यु को स्वीकारना सरल कर देती है.

    ReplyDelete
  6. "परन्तु कोई हमें मृत्यु (अपनी या अपने प्रियजन की ) का सामना कैसे करें नहीं सिखाता, न ही कैसे मरें सिखाता।"

    सिखाया है जी
    देखें ये लिंक
    http://www.oshoworld.com/discourses/audio_hindi.asp?cat=M
    सुनें लिंक
    http://www.oshoworld.com/discourses/audio_hindi.asp?album_id=99
    हम सीखना चाहें तब ना, हम तो जितना याद रखते हैं कि आत्मा अमर है उतना ही मृत्यु से डरते हैं।

    ReplyDelete
  7. अभी कानपुर जाने पर मैं और भईया भी यही चर्चा कर रहे थे। मैने भी यही कहा कि अचानक पता चले कि मुझे कैंसर है तो हो सकता है, कुछ दिन शॉक्ड होऊँगी नेचुरली...! एक तो शारीरिक कष्ट जो होता है, वो उस समय असहनीय होता है। तो थोड़ा डरा जाता है। ज्यादा पीड़ा ना हो तो अपनो से बात करते हुए विदा ले ली जाये। पता तो नही मगर शायद यही प्रतिक्रिया हो, कि जब जाना ही है तो बहुत हाय तौबा मचाने से क्या फायदा।

    इस घटना पर बहुत विचार किया मैने भी। लगा कि अपनी मौत से अधिक अपनों का जाना खलता है। वो अधिक कष्टकारक होता है और ताउम्र सालता रहता है। मैं अपनी कहूँ तो बस इतनी सी बात सोच कर बहुत कष्ट होता है कि पता नही अगले जन्म में इतना अच्छा परिवार और मित्र मिलेंगे कि नही...! शायद ये नॉस्टैलजिक फीलिंग है..फिर भी..!

    और ये बात मैं मानती हूँ कि धर्म में जो कुछ भी लिखा है, वो हमारे मनोविज्ञान के हिसाब से लिखा है, फिर चाहे पाप पुण्य, पुनर्जन्म जैसा जो कुछ भी है। आज मौत और कल हमारा वज़ूद कुछ नही, ये सच में बहुत मानसिक कष्ट पहुँचाता। शुक्र है कि पूर्वजों ने जन्म को भी मृत्यु जितना ही सत्य बताया है। जो जन्मा है उसकी मृत्यु होगी और जिसकी मृत्यु होगी वो जन्मेगा ही।

    इस विषय पर चर्चा करते हुए जो अनिश्चित भावानएं पनपती हैं, उनके बद बच्चन जी की कविता

    इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

    और

    नरेंद्र शर्मा जी की कविता

    आज के बिछड़े ना जाने कब मिलेंगे

    सहज ही याद आ जाती है

    ReplyDelete
  8. Anonymous1:55 pm

    ऐसी मौत से भगवान उसको एक बार ही उठा ले.. दुआ करता हूं.. तिल तिल कर मरना बहुत मुश्किल है..बेश्क जेड हौंसला करके दिन गुजार रही है..

    ReplyDelete
  9. जेड़ गुडी एक समझदार व्यापारी है जहाँ मीडिया उनका पार्टनर है ओर वे अपनी मृत्यु बेच रही है जिसका नफा दोनों ने आधा आधा बाँट लिया है .....मृत्यु एक .. नयी हलचल है ..जो रियल्टी शो को ओर नयी .संवेदना .देती है दर्शक दुःख में जुडा महसूस करता है ठीक वैसे ही जैसे सारे गा मा पा या किसी ऐसे ही म्यूजिक शो में अचानक किसी की मा या पिता की गरीबी या मोहल्ला दिखाया जाता है ओर आप खाना खाते खाते अचानक द्रवित हो उठते है ओर मोबाइल से एस एम् एस करके उस प्रतियोगी को बचाने की कोशिश करते है ....लगभग हर चैनल पर दुःख को अलग अलग पैकेजिंग में बेचने की होड़ है...याद है जी टी वि पर गुडिया प्रकरण ...उसके दुःख का इस्तेमाल ...जी वाले उसे बाकी चैनलों से छिपा कर अपनी किसे गेस्ट हाउस में ले गया ..दिन रात उस पर बहस हुई..नतीजा सिफर .उसके मन की इच्छा धर्म मजहब ओर रवाजो टेल दबी ....ओर वाही हुआ जो धर्म के ठेकेदार चाहते थे .बाद में एक गुमनाम मौत मरी....कौन से चैनल ने उसे याद किया.सबका अपना अपना मकसद पूरा हुआ.........
    पश्चिम समाज का टेस्ट ओर जायका बदलता रहता है...आजकल मौत ....उन्हें दिलचस्पी दे रही है ..ठीक वैसे ही जैसे रेपिस्ट .हत्यारे अपने क़त्लो पर किताबे लिख कर लाखो रुपयों की रोयल्टी कमा रहे है ...मुआफ कीजिये कर्म योगी
    वो होते है जो अपनी मौत के बाद अपनी अचल संपाति दान कर देते है ....सारी पढाई छोड़कर .गाँव गाँव आदिवासियों में अपनी जिंदगी गुजार देते है..आमटे जैसे लोग या राजेंदर जैसे लोग जो पानी की महत्ता गाँवो में घूम घूम के सिखाते है ....कर्मयोगी वो परिवार है जो अपनी तीन साल की बच्ची जो ऐसे रोग से पीड़ित है जिसका उपचार शायद एक सीमा तक ही है ..फिर भी हर दुःख सहकर अपनी सिमित आय के बावजूद कोई कोशिश कोई उम्मीद नहीं छोड़ता....कर्मयोगी वो लड़की है जो २० साल की उम्र में केंसर का शिकार होकर भी अपने सीमित समय में हंसी ख़ुशी इस दुनिया से विदा लेती है...कर्मयोगी वो बड़ा लड़का है जो कम तन्खावः में भी अपनी बहन की शादी करता है माँ बाप को नहीं छोड़ता ओर पैसे के लालच में अपने ईमान को नहीं बेचता .....कर्मयोगी एक आम इंसान भी है जो इमानदारी ओर शान्ति से अपने कर्त्तव्य पुरे कर रहा है......
    मुआफ कीजिये जेड़ कर्मयोगी नहीं है....वो एक चतुर व्योपारी है जो बाजार की नब्ज जानती है

    ReplyDelete
  10. अत्यंत रोचक दर्शन. हमें यकीनन मृत्यु के लिए भी अपने आप को तैयार करना चाहिए. चाहे वो अध्यात्म के जरिये हो या सामान्य तरीके से. आभार.

    ReplyDelete
  11. Aapne Mirtu pe jo likha wo to ek satya hai use nahi jhutlaya ja sakta hai...par mai Dr. Anuraag ki baat se bhi puri tarah sahmat hu...

    ReplyDelete
  12. बहुत ही बेहतरीन और सोच के दरवाज़े खोलनेवाला लेख है।

    ReplyDelete
  13. बहुत शानदार पोस्ट है.

    ReplyDelete
  14. मुझे ये रियलिटी शो के नाम पर कुछ भी दिखा देने वाली बात अच्छी नहीं लगती...मृत्यु में कौन सा सुख पा रहे हैं वो लोग जो तिल तिल मरती jade की हर बात के बारे में जानने की कोशिश कर रहे हैं. सर्विकल कैंसर बेहद तकलीफदेह होता है...वह अभी मर्मान्तक पीडा में है. कुछ दिन पहले तो पता था की वह अपने मृत्यु का क्षण भी लाईव टेलेकास्ट करवाना चाहती थी, पर फिर उन्होंने अपना निर्णय बदल दिया. मृत्यु जैसी बेहद निजी और करुण स्थिति को एक वस्तु की तरह बाजार में बेचना मुझे किसी भी कारण से सही नहीं लगता.
    jade से ज्यादा उन लोगो की मानसिकता मुझे चौंकाती है जिन्हें यह सब तमाशा लग रहा है और वह इसे देख रहे हैं...क्या किसी भी ऐसे व्यक्ति जिससे उनकी संवेदनाएं जुडी हों उनके बारे में ऐसे पल पल की खबर ले सकेंगे वो...इस इंतज़ार में वो कब मरता है.
    जिंदगी की सच्चाई और फिल्मों में कुछ तो अंतर बचा रहना चाहिए...ये तो वैसा ही लगता है...truth is stranger than fiction.

    ReplyDelete
  15. अनुराग जी ने दिल की बात लिख दी...उसमें ना एक शब्द जोड़ा जा सकता और ना ही घटाया...
    नीरज

    ReplyDelete
  16. बहुत अच्‍छी पोस्‍ट लिखी है आपने ... आत्‍मा तो नहीं मरती ... पर शरीर तो मरता है ... और इस दुनिया से हमारे शरीर को ही मोह होता है ... पर इस स्थिति में भी हिम्‍मत बनाए रखकर ... अपने मरने की प्रक्रिया को सारे संसार में प्रसारित करना ... उससे अपने दो पुत्रों के लिए धन कमाने की व्‍यवस्‍था करना ... आश्‍चर्य होता है यह सब देखकर ।

    ReplyDelete
  17. गुलजार साब के शब्दों में

    'मौत तू एक कविता है
    मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको.'

    जेड गुडी भी मौत को एक कविता की तरह पढ़ रही हैं.

    ReplyDelete
  18. बहुत अच्छा विश्लेषण किया आपने....कुछ दिनों की बात है!जेड गुडी चली जायगी! वो कर्मयोगी तो पता नहीं है या नहीं लेकिन मौत को सामने आते देखना वाकई एक दर्दनाक अनुभव है!

    ReplyDelete
  19. बडा ही गूढ विषय है. मौत को देखना आसान नही है. कोई महात्मा या योगी ही ऐसा कर पाता है. फ़िर भी जिस बात को उपनिषदों मे इतनी सुंदर तरीके से समझाया गया हो..और बात आज तक समझ नही आई हो. तो इसे क्या कहेंगे?

    यही कि यह भी एक नितांत निजी अनुभव है. आपने बहुत सुंदर विषय ऊठाया पर शायद लोगों को इसे सुंदर कहने पर भी आश्चर्य लगेगा.

    रामराम.

    ReplyDelete
  20. जेड़ गुडी नोटंकी कर रही है, कर्मयोगी कया ऎसे ही होते है, हां अपनी मोत को दिखा कर अपने परिवार को अमीर जरुर बना देगी जो एक नर्स के रुप मे जिन्दगी भर नही बना सकती थी, बाकी हम लोगो ने खाम्खा इसे सर मै बिठा लिय है यह वोही है जिस ने भारतीयो को बदबू, ओर कुत्ता कहा था, मुझे इस से कोई हमदर्दी नही, भारत मै भी तो लोग मरते है केंसर से ...
    बाकी आप का लेख बहुत अच्छा लगा बस इस जेड़ गुडी को छोड कर.
    धन्यवाद

    ReplyDelete
  21. घुघूती जी,
    जातस्य ही ध्रुवो मृत्यु- सत्य होते हुए भी, जीवित व्यक्ति जीवन यापन करते हैँ -
    गँभीर विषय है
    और आपका लिखा बहुत सुलझा
    - कई मुद्दे उत्पन्न कर गया
    स्नेह,
    - लावण्या

    ReplyDelete
  22. इसी का नाम दुनिया है /कहीं एक दूल्हा सजा जा रहा है ,कहीं पर जनाजा उठा जा रहा है /इसी का नाम दुनिया है ,वक्त का किसको पता रहता है / शिल्पा जी तक न मिल पाईं -बच्चों को देखते वक्त क्या ख्याल आये होंगे खुदा जाने ,डाक्टर तो कोमा में मान रहे थे

    ReplyDelete
  23. बेहतरीन पोस्ट के साथ बेहतरीन कमेंट पढकर कुछ नये विचार जानने को मिलें।

    ReplyDelete
  24. आपने सही लिखा है कि मृत्यु व जन्म जैसे निजी क्षण भी अब सार्वजनिक हो रहे हैं। हमारे वेंदों में भी एक ही सत्य माना गया | लेकिन ये तो संसार की माया है कि क्वाचिद वीणा वादन ,क्वाचिद हाहादिदिरुदितम

    ReplyDelete
  25. जिन्दगी किसके साथ किस प्रकार का खेल खेलती है...यह किसी को भी नहीं पता...अलबत्ता खेल पूरा हो चुकने के बाद हमारा काम उसपर रोना-पीटना या हंसना-खिलखिलाना होता है...किस बात का क्या कारण है...हमारे जिन्दा रहने या अकाल ही मर जाने का रहस्य क्या है....यह भी हम कभी नहीं जान सकते....हम सिर्फ चीज़ों को देख सकते हैं...गर सचमुच ही हम चीज़ों को गहराई से देख पाते हों....तो किसी की भी....किसी भी प्रकार की मौत हमारे इंसान होने के महत्त्व को रेखांकित कर सकती है....क्या हम सच में इस बात समझ सकने के लिए तैयार हैं......?????
    .........जेड गुडी ही क्यों....किसी भी कोई भी इंसान किसी भी दुसरे इंसान की तरह ही उतना ही महत्वपूर्ण है....अपनी अर्थवत्ता और अपने महत्त्व को इतना सभ्य.... ..इतना शिक्षित....इतना विवेकशील कहलाने वाला इंसान भी नहीं समझता और तमाम तरह के दुर्गुणों....लालचों.....व्यसनों....और अन्य बुराईयों में जानबूझकर जकडा हुआ रहता है....
    हर वक्त किसी से भी झगड़ने को तैयार रहता है....और तरह-तरह के नामों के खांचे में खुद को सीमित कर तरह-तरह की लडाईयाँ लड़ता रहता है....!!
    ............आखिर क्या बात है.....??.....आखिर इंसान को चाहिए तो आखिर क्या चाहिए.....???....कितना कुछ उसके शरीर के और मन के पेट भरने को काफी है...??.... सच तो यह है.....की हम पाते हैं कि कितना भी कुछ इंसान को क्यूँ ना मिल जाए....उसकी हवस उसको मिले कुल सामान से "द्विगुणित" हो जाती है....हमारे चारों और तरह-तरह के जेड़ गुडी बिखरे पड़े हैं....जो विभिन्न तरह के कैंसरों से लड़ते-लड़ते जीते-जी मर रहे हैं....और अंततः जिन्दगी की तमाम जंग हार जा रहे हैं...जो मीडिया में है...या जो मीडिया को दिखाई पड़ता है...सिर्फ उतनी ही यह धरती नहीं है....और ना ही उतने ही धरती के दुखः......!!
    ...........हम सब....या हममे से कुछ लोग भी अगर बेहतर इंसान होने का मदद अपने भीतर भर लें.....तो समाज के बहुत तरह के कैंसर एक क्षण में दूर हो सकते हैं...क्या हम एक बेहतर इंसान बनाने को तैयार हैं.....??क्या हम अपने कर्तव्यों को समझते हैं....??क्या हम समझ पाने को व्याकुल हैं कि धरती को सच्चे इंसानों की बहुत से समय से तलाश है...??क्या हम समस्त इंसानों की थोडी सी खुशियों के लिए अपने थोड़े से स्वार्थों की तिलांजलि देने को तैयार हैं....??...................याद रखे धरती हमें यह नहीं कहती कि हम दुखी हो जाएँ....बस इतना ही चाहती है कि हम अपने थोड़े से सुखों को किसी और को सौंप दें.....और इसमें बड़ा मज़ा आता है....हमारे अपने सुखों से कहीं बहुत ही ज्यादा....सच....हाँ दोस्तों मैं बिलकुल सच ही कह रहा हूँ.....सिर्फ इक बार आजमा कर देखें ना....बार-बार आजमाने को जी चाहेगा...सच....सच...सच.....हाँ सच.....!!!!

    ReplyDelete
  26. क्या हम जेड की तरह ही मौत को कैश करने के उसके उपाय को सहारा दे रहे हैं? भगवान उनकी आत्मा को अब शांति प्रदान करे।

    ReplyDelete
  27. ?

    मैं यह समझ नही पाया कि आपको क्या संबोधन दूं? जेड़ गूड़ी के लिये ईश्वर से प्रार्थना भर कर सकते हैं. परंतु आपके उठाये गये प्रश्‍न झकझोर देते और यही शायद लेखकीय सफलता है.

    जहाँ तक किसी के कर्मयोगी होने के लिये व्यव्स्था योगेश्वर श्रीकृष्ण ने बतायी है "........ मा कर्मफल हेतु भूर्माते सण्ड्गोसत्व कर्मणि " यह इस प्रसंग से संगतता नही रखती. आज के दौर में गिरते हुये नैतिक मूल्यों के साथ मानवता भी मर रही है अब मृत्यु भी तमाशा लगने लगी है या बनायी जा रही है.

    यह अवस्था बड़ी ही त्रासद है.

    आप जैसे धुरंधर का मेरे ब्लॉग पर आना मेरे लिये सौभाग्य का विषय है. आपका मेरा ब्लॉग पर आने का शुक्रिया और आपके मार्गदर्शन रूपी टिप्पणी के लिये धन्यवाद.

    मुकेश कुमार तिवारी

    ReplyDelete
  28. मुकेश जी,
    आपकी कविता पर की गई टिप्पणी सर्वथा अधूरी थी। जानबूझकर उतना ही कहा था। शायद अधिक इसलिए नहीं कहा क्योंकि मेरे जूड़े में भी बहुत से प्रश्न गुँथे हुए हैं, प्रश्न जो शायद सदा अनुत्तरित रहेंगे। प्रश्न जिनके उत्तरों की अब शायद आशा भी नहीं रह गई है।
    जूड़ा स्वयं ही शायद कमर कसने, साड़ी का पल्लू कमर में खोंसने की तरह सांकेतिक है। हो सकता है बिखराव को समेटने का, बहाव को रोकने का, विस्तार को समेटकर सीमित करने का या यह सब करके अपनी सीमाओं को पहचानने का।
    कविता अच्छी लगी और मैंने कई बार पढ़ी। काव्य की कोई जानकारी नहीं है परन्तु जो मुझे दोबारा पढ़ने को प्रेरित करे वही मेरे लिए अच्छा है।
    सबसे सरल सम्बोधन नाम का होता है। कुछ भी कहकर सम्बोधित कर सकते हैं।
    घुघूती बासूती

    ReplyDelete
  29. मृत्यु के इस वीभत्स प्रदर्शन और विज्ञापन के पीछे कितने लाख डॉलरों का खेल है। यह भी विचारणीय है।

    ReplyDelete
  30. डॉ अनुराग और पूजा जी से से सहमत हूँ। जेड का अन्त दुख:द है पर जो कुछ तमाशा हो रहा है वह सही नहीं लगा ।

    ReplyDelete
  31. न, वह कर्मयोगी नहीं है, कर्मयोगी का कोई स्वार्थ नहीं होता, और जेड यह बिना कुछ लिए यूँ ही फ्री में नहीं कर रही है. यह रियालिटी बेच रहे हैं, और कुछ भी सोच समझ न पाने वाले लोग भावनाओं में बह कर रुदन का कोरस कर रहे हैं. यही सहानुभूति दिखने वाले नस्लवादी टिप्पणियों पर जेड पर कैसे चिढे थे?

    सब मार्केट की माया है प्रभो!!! क्या कल को कोई अपने कैंसर से मरते हुए दस बारह साल के बच्चे की मौत का लाइव फुटेज मीडिया को बेचकर कर्मयोगी कहलायेगा, या अपने बच्चे को कर्मयोगी साबित करेगा? वैसे आज के माँ बाप जो कुछ बच्चों को टीवी पर देखने के लिए करते हैं उसे देखकर यह दूर की कौड़ी भी नहीं लगती.

    ReplyDelete
  32. मृत्यु के बहाने एक गम्भीर पोस्ट।

    ReplyDelete
  33. Anonymous2:17 pm

    This comment has been removed by a blog administrator.

    ReplyDelete