Tuesday, March 18, 2008

पहली स्मृति

कुछ दृष्य आँखों व स्मृतिपटल में कैद होकर रह जाते हैं। विचार करो तो उनके याद रहने का कोई कारण नहीं मिलता। क्यों और क्या से अलग इनका अपना ही अस्तित्व व स्थान होता है। कई यादें किन्हीं फोटो की बैसाखी के सहारे खड़ी होती हैं तो कई परिवार में होने वाली बातचीत, पुराने किस्सों को सुनने सुनाने के कारण। यही कारण है कि जो बच्चे अपने परिवार में रहते हैं, उन्हें बचपन की बातें याद रहती हैं क्योंकि वे बातें घर में बार बार दोहराई जाती हैं। परन्तु अनाथ या परिवार से बिछड़े बच्चे इन्हीं बातों को भूल जाते हैं।

परन्तु मेरी बचपन की सबसे पहली याद के पास कोई बैसाखी या किस्सा नहीं है। ना ही वह दृष्य कुछ विशेष या अनोखा है। उसमें घर में चर्चा करने लायक भी कुछ नहीं है। केवल एक स्पष्ट केमरे में बन्द किया एक दृष्य सा यादों में बहुत साफ - साफ है। जब भी बचपन शब्द के बारे में सोचती हूँ तो वह सामने आ जाता है। भाई व मैं हाथ पकड़े घर के पीछे बगीचे में खड़े हैं। भाई ने लाल रंग का आगे से खुला कार्डिगन पहना हुआ है। कार्डिगन में लाल रंग के एकदम सपाट लगभग १ या २ मि.मी. मोटे बटन हैं। बटन में गोल गोल उभरे हुए वृत्त हैं। बहुत सारे वृत्त। मुझे बटन का डायामीटर भी याद है, लगभग १.५ सै. मी.। बगीचे में बहुत सी क्यारियों के बाद एक छोटी सी पहाड़ी है । पहले की क्यारियों में सब्जियाँ लगी हुई हैं । बाद की क्यारियों में पंक्तियों में तीन तीन पपीते के पेड़ लगे हुए हैं ।पपीतों के बाईं तरफ एक बहुत बड़ा खाद का गड्ढा है । पहाड़ी पर बगीचे की सीमा पर बाड़ लगी हुई है । बाड़ में एक बहुत बड़ा बेर का पेड़ है । हम दोनों सामने उस पेड़ को देख रहे हैं। क्यों देख रहे हैं यह पता नहीं , बस देख रहे हैं। उस पेड़ के बेर भी याद हैं । बड़े - बड़े स्वादिष्ट बेर ।


पिताजी को बगीचे का बहुत शौक था । सुबह ना जाने कितनी जल्दी उठकर वे सैर को जाते थे । प्राणायाम करते थे । फिर बगीचे में लग जाते थे । घंटे भर बगीचे में काम करके ही स्नान, पूजा व नाश्ता कर दफ्तर जाते थे । उस बगीचे जैसा बगीचा मैंने कभी नहीं देखा । जबकि विवाह के बाद कई जगहों पर हमारे बगीचे उस बगीचे से बहुत बड़े थे । माली भी थे । मुझे स्वयं को बागवानी का बहुत शौक भी था । परन्तु पिताजी जैसी green fingers मेरी या मेरे मालियों की नहीं थीं ।


उस मकान में जाने के लिए एक गेट था । गेट के बाद ऊपर को जाती सीढ़िया और रैम्प । एक रास्ता जाता था जिसके एक तरफ हमारा बगीचा, दूसरी तरफ पड़ोसियों का । कुछ आगे जाने पर दोनों तरफ गेट, एक हमारा एक पड़ोसियों का । रास्ता और ऊपर जाता था, सीढ़ियों से होकर । फिर एक और पड़ोसियों का बगीचा व मकान ।


हमारे गेट की एक तरफ एक बहुत पुराना व बड़ा बरगद का पेड़ था । उसका जितना मोटा तना मैंने कभी नहीं देखा । बगीचे के हर कोने के लिए पिताजी की कोई योजना होती थी । कोई भी जगह बर्बाद नहीं जाती थी, परन्तु इस सदुपयोग में सौन्दर्य होता था । सो बरगद के पेड़ के नीचे की भूमि को कुछ ऊँचा बना, उसे पत्थरों से बाँध, वहाँ तरह तरह के कैक्टस लगा रखे थे । सामने लॉन था जिसके चारों ओर तरह तरह के फूलों के पौधे थे। गुलाब की इतनी किस्में थीं कि सिवाय चन्डीगढ़ के रोज गार्डन के मैंने कहीं नहीं देखीं।


क्यारियाँ जहाँ खत्म होती थीं और बगीचे की दीवार के बीच में एक ढलान था । वहाँ एक कलमी आम का पेड़, दो आड़ू के पेड़ और कोने में घना केलों का जंगल था । मकान के पीछे जाने के रास्ते पर लंगड़े आम का पिताजी के हाथों लगाया पेड़ , इलाहाबादी अमरूद का पेड़ व अंगूरों की बेल थी । थोड़ा पीछे जाने पर कलमी आड़ू का नैनीताल से लाया हुआ पेड़ , गलगल (बड़े नींबू का पेड़), लाल अमरूद का पेड़, व लुकाट का पेड़ था। बीच में क्यारियों मे सब तरह की सब्जियाँ। फिर गन्ने की दो बड़ी क्यारियाँ थीं। उसके बाद दो संतरे के पेड़, व बहुत सारे तीन तीन की पंक्ति में लगे पपीते के पेड़ । हर बच्चे के नाम की अलग पंक्ति । एक अनार का पेड़ फिर सब्जियों की क्यारियाँ थीं । उनके ऊपर पहाड़ी पर बनी आलू की क्यारियाँ, एक मीठे व बड़े अंजीरों का पेड़ । हमारे खाने के कमरे व खाद के गड्ढे के बीच गायों के रहने के लिये एक कमरा बना हुआ था । हम खिड़की से झाँककर गायों को देख सकते थे । परन्तु मेरे पैदा होने के कुछ समय बाद ही गायें किसी को दे दीं थीं । पिताजी कोई बड़ी पोस्ट पर नहीं थे, परन्तु भाग्य से जिस निजि कंपनी में वे काम करते थे वहाँ घरों के साथ बड़े से बगीचे भी दिये गए थे । यही बगीचा उनके हाथों संवरकर और भी बड़ा लगता था ।


ये सब क्यों याद आ रहा हे पता नहीं । कोई कारण नहीं है, परन्तु याद आ रहा है । और याद आ रहा है वह लाल स्वैटर, लाल बटन व भाई का हाथ पकड़े हुए बेर के पेड़ को देखती मैं ।

घुघूती बासूती

10 comments:

  1. पिता जी के हाथों रचा वह सौदर्य अब नहीं दिखाई देता,सिर्फ याद आता है।

    ReplyDelete
  2. Anonymous10:39 am

    बहुत बारीकी से दिखाया उस सुन्दर याद को । उनकी स्मृति को प्रणाम ।

    ReplyDelete
  3. Anonymous10:42 am

    masum bachpan ki masum yaadien,felt like i am standing in the bagija in between all tress,wow fantastic narration,sundar.

    ReplyDelete
  4. देखिए, कितना अच्‍छा काम किया था आपने भाई का हाथ पकड़े रहीं.. इसी बहाने कम से कम एक अच्‍छी तस्‍वीर तक पहुंचने का हमारा रास्‍ता बना.. अच्‍छी याद लिखी..

    ReplyDelete
  5. Anonymous12:19 pm

    Memories of any individual childhood may be different but they do come up just like that, even if we have lost touch with surroundings of our past. Beautiful narration.Waiting for more such visits down the memory lane.

    ReplyDelete
  6. इतने सुंदर बगीचे की सैर करवाने का शुक्रिया।

    ReplyDelete
  7. Anonymous1:57 pm

    Hello. This post is likeable, and your blog is very interesting, congratulations :-). I will add in my blogroll =). If possible gives a last there on my blog, it is about the Impressora e Multifuncional, I hope you enjoy. The address is http://impressora-multifuncional.blogspot.com. A hug.

    ReplyDelete
  8. अरे भई , भाई का हाथ पकडॆ नन्ही घुघुती जी भी दिखा देते तो मज़ा आ जाता !
    सुन्दर यादें ।

    ReplyDelete
  9. Anonymous12:17 pm

    बशीर बद्र जी ने कहीं कहा है
    तेरी याद शाखे गुलाब है जो हवा चली लचक गई।
    बहुत सुंदर यादों के फूल बिखेरे है आपने।

    आपके ब्‍लॉग पर आकर मैं भी अपने बचपन में पहुँच गया। एक दुश्‍य याद आ रहा है।
    एक मॉं पीठ के बल लेटी हुई है। घुटने पेट के ऊपर मुड़े हुए है और एक नन्‍हा शिशु उसके पॉव पर बैठा हुआ है। पॉंव ऊपर नीचे करके वह बच्‍चे को झुला रही है और गा रही है

    घुघूति
    बासूति
    आम कां छन
    गाड़ा में छन
    घुघूति
    बासूति
    बुबु कां छन
    ....
    ....


    मथुरा कलौनी

    ReplyDelete
  10. yadon se meetha aur kuch ho hi nahi sakta .meetha swad chakhane ke liye shukriya

    ReplyDelete