Monday, January 14, 2008

जब हम


वे और हम


जब हम यहाँ हैं जागे होते
वे आँखे मूँदे वहाँ सोते हैं,
जब हम हैं सपनों में होते
वे नीतियों में खोए होते हैं,
जब हम हैं प्रतीक्षा में होते
वे लगे समीक्षा में होते हैं ।

हम जब खाते हैं घासपात
वे चिकन बिरयानी खाते हैं,
उनके मिलने आने से पहले
घड़ियाँ भी रुक सी जाती हैं,
जब मिलते हैं तो साँसों सी
वे तेज दौड़ लगाती जाती हैं ।

घुघूती बासूती

5 comments:

  1. ये तो खासी माथा पच्‍ची कराने वाली कविता है जी. अंतिम बात अच्‍छे से समझ आती तो पूरा मतलब भी समझ आता.

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  2. :) संजय जी सही कह रहे हैं... काश कि कोई ऐसी एक्सरे मशीन बनी होती...जिससे किसी के भी मन की दशा को समझा जा सकता.

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  3. हम नभ में हैं, वे पाताली
    तभी सभी कुछ उल्टा उल्टा

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  4. बाबा रे!! कित्ती ऊंची कविता लिक्खे हो आप!!
    इतनी हाईट है मेरी, फ़िर पंजो के बल खड़ा भी हो गया फिर भी मेरे सर के ऊपर से निकल ही गया । :(

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  5. कही आप हमसे पहेली तो नही पूछ रही है? हम भी औरो की तरह समझने की कोशिश कर रहे है। सुबह अपनी माताजी से पूछेंगे।

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