Sunday, January 13, 2008

वह सोचता है




वह सोचता है
वह बन भंवरा गुनगुनाएगा
जब न बचेंगे बगिया में कोई फूल बाकी,
वह बन बादल बरसेगा
जब खेत में न होगा एक हरा पौधा बाकी,
वह बन चिड़ा चहकेगा
जब न होगा पेड़ पर एक भी पत्ता बाकी,
वह लौट आएगा अपने नीड़ में
जब न बचेगा नीड़ में कोई तिनका बाकी,
वह बन सागर पुकारेगा मुझे
जब नदिया में न होगा एक बूँद नीर बाकी,
वह सोचता है
मैं दौड़ उसकी बाँहों में समा जाऊँगी,
जब न होगी मुझमें एक भी साँस बाकी ।


घुघूती बासूती

10 comments:

  1. न बचेंगे बगिया में कोई फूल बाकी
    न होगा एक हरा पौधा बाकी
    न होगा पेड़ पर एक भी पत्ता बाकी
    जी ये बातें? ? ... इतना कठोर बिंब?

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  2. गहरे भाव है। क्या आप किसी पीडा से गुजर रही है? पता नही क्यो ऐसा लगा।

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  3. बहुत ही अच्छी कविता।

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  4. इतनी सुन्दर, टिकाऊ, मजबूत कविता के लिए बधाई। पर इसमें 'मैं सोचता हूँ' दोनों बार अवांछनीय लगा । इस से कविता की मजबूती कम हो गयी। हटा ही दें तो कविता की सुन्दरता और मजबूती बढ़ जाएगी। सुझाव है। अन्यथा न लें।

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  5. पीडा को उकेरती सुन्दर कविता ....
    कम शब्द...गहरे भाव....

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  6. अपनी संवेदनाओं को रचना के माध्यम से बखूबी अभिव्यक्त किया है।

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  7. ह्म्म!! सशक्त!! पर दर्द झलकाता हुआ।

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  8. कविता मे कुछ दुःख झलक रहा है।

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  9. Anonymous3:12 am

    सीधी-सच्ची-सरस। जेपी नारायण

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  10. हमतो यही कहेंगे कि तीसरी लाईन के बाद की नौबत ही ना आये यानि कि बगिया में फूल हमेशा रहें, लेकिन कविता अच्छी है और भाव सुंदर।

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