Monday, December 03, 2007

अम्मा २

अम्मा २

अम्मा पड़ोस में रहती हैं । मुझे वे बहुत भाती हैं क्योंकि उन्हें पढ़ने का बहुत शौक है । वैसे तो वे हिन्दी भाषी हैं पर यहाँ बंगाल में उन्हें हिन्दी की पुस्तकें व समाचार पत्र सरलता से उपलब्ध नहीं होते हैं, अत: उन्होंने बंगला पढ़ना,समझना व कुछ सीमा तक बोलना भी सीख लिया है। वैसे तो उन्होंने अधिकतर बंगला साहित्य का हिन्दी अनुवाद पढ़ रखा था परन्तु अब मूल उपन्यास पढ़ गदगद हो जाती हैं ।
अम्मा ने एक खाते पीते मध्यमवर्गीय ऊँचे कुल में जन्म लिया था । विवाह भी एक सभ्रान्त परिवार में हुआ था । पति भी ठीक ठाक कमा रहे थे । किन्तु घर में दुर्भाग्य की मार कुछ ऐसी पड़ी कि उनके विवाह से पहले ही घर की हालत खस्ता हो गई थी । घर के सबसे बड़े पुत्र की मृत्यु, दुकान व घर में चोरियाँ, इन सब ने ससुर की कमर तोड़ दी थी ।
अंग्रेज सरकार की नौकरी वाले पिता के घर फ्रॉक,पैन्ट्स,निकर आदि पहनने वाली अम्मा को पुत्रवधू बना ससुर बहुत गर्व से घर ले जा रहे थे। वहाँ डोली में लंह्गा व ढेर सारे आभूषण पहने १२ वर्ष की अम्मा को यह गुड़ियों का खेल सा लग रहा था । उन्हें लग रहा था कि अभी यह खेल खत्म होगा और वे वापिस अपने घर यह सब उतार फ्रॉक पहन अपनी सहेलियों व भाई बहनों के साथ मस्ती कर रही होंगी। परन्तु यह खेल था कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था।
आखिर वे ससुराल पहुँची , दूल्हे को घोड़े से व दुल्हन को पालकी से उतारा गया। वहाँ सब लोग उनके रूप, गहनों,कपड़ों, सैन्डल व लम्बे बालों को देखकर आश्चर्य कर रहे थे । उनके मुलायम हाथ यह दर्शा रहे थे कलम के अलावा उन्हो्ने दराती, खुरपी तो क्या चाकू भी कभी नहीं पकड़ा है ।
ससुर उनसे रोज गीता व रामायण सुनते। अपनी बेटियों व आसपास की लड़कियों से उनसे लिखना पढ़ना सीखने को कहते । परन्तु गाँव में बहू का मूल्य तो केवल उसके खाना पकाने, खेतों में काम करने, गाय भैंस का खयाल रखने की योग्यता से ही आँका जाता। पति अपनी बालिका वधू को देखते, गाँव में उसके भविष्य की चिन्ता करते , परन्तु ना तो इस बच्ची को अपने साथ शहर ले जा सकते थे, ना उसके लिए कुछ और कर सकते थे। वे अम्मा को माता पिता व बड़ों का कहा मानने को कह कर शहर नौकरी पर चले गए।
उनका मन भी अम्मा की चिन्ता में लगा रहता। वे जानते थे कि जबतक गाँव के लोग उन्हें अपना सा न बना लेंगे तब तक अम्मा पर तानों की बौछार होगी। पति के जाते ही परिवार ने उन्हें भी खेतों पर ले जाना शुरू कर दिया। शुरू में तो अम्मा को धान रोपना भी खेल ही लगता था । जैसे बच्चे मिट्टी से खेलते हैं कुछ वैसे ही अम्मा धान रोपतीं। गाय भैंस का काम भी उनसे बतियाती हुईं करती । गाय भैंसो को अपने विद्यालय में सीखी कविताएँ सुनातीं। गोबर के उपले खूब मन से बनातीं । कोशिश करतीं कि सब उपले बराबर आकार के और बिल्कुल गोल होंए। यह सब देख स्वाभाविक था कि परिवार की अन्य स्त्रियों को उनपर गुस्सा आता और वे उनसे तेज काम करने को कहतीं। घर को गोबर से लीपना भी उन्होंने सीख लिया था । वे घर लीपकर सुन्दर रंगोली बनातीं ।
पति उन्हें पत्र लिखते, उनका हाल पूछते। उनके बाल मन में अभी पति के लिए कोई विशेष स्थान नहीं बना था । न ही उन्हें इस रिश्ते का महत्व ही पता चला था। पति साल में एक बार घर आते। किशोरी पत्नी को देखते व गाँव के वातावरण में रमते हुए देखते। सोचते कि अब जब मैं इसे शहर ले जाऊँगा तो क्या वह उस वातावरण में रह सकेगी ।
१७ वर्ष की उम्र में उन्होंने अपने भाई से अम्मा को शहर पहुँचाने को कहा । जब वे स्टेशन में उन्हें लेने पहुँचे तो खस्ता हाल कपड़ों, गहने विहीन शरीर , चप्पल रहित फटे हुए पैर देख उनका मन अपनी पत्नी की दुर्दशा देख रो पड़ा । जब उन्होंने अम्मा से उनकी शादी में मायके से मिली ढेरों साड़ियों , गहनों व तरह तरह की सैन्डल्स के बारे में पूछा तो वे बोलीं कि वे तो घर में सबने रख लिये हैं । उनसे कहा कि शहर में नए खरीद लेना । वे उन्हें लेकर साड़ियों की दुकान पर गए, कुछ साड़ियाँ खरीदीं । फिर जूतों की दुकान में गए । दुकानदार ने जब अम्मा के सामने चप्पलें रखीं तो अम्मा को कौन सी चप्पल किस पैर में डालें नहीं समझ आ रहा था। ये वही शहर वाली अम्मा थीं, पढ़ने की शौकीन अम्मा, सैन्डल पहनने वाली अम्मा ! जब हाथ पकड़ सड़क पार कराने लगे तो सख्त , खुरदुरे हाथ को पकड़ उन नरम गुलाबी हाथों को याद करने लगे जो उन्होंने पाणि ग्रहण के समय पकड़े थे।
अम्मा व उनके पति ने अभावों में भी अपने बच्चों को बेहतर से बेहतर शिक्षा दी । अम्मा के पास दो तीन ही साड़ियाँ होती थीं व मोहल्ले की स्त्रियाँ उन्हें रोज रोज वही पहनने के लिए टोकती थीं । अब अम्मा के सभी बच्चे कमाने लगे हैं । अम्मा के पास किसी चीज की कमी नहीं है , कमी है तो केवल उनके पति की । रंग बिरंगी साड़ियाँ व गहने पति के बिना पहनने का उनका मन नहीं होता । पहले दुर्गा पूजा में जाती थीं तब ढंग के कपड़े नहीं थे , अब अलमारियाँ साड़ियों से पटी पड़ी हैं तो उनका जाने का मन नहीं होता । सुहागिनों के बीच विधवा का जाना उन्हें अच्छा नहीं लगता । मैं और उनके बच्चे उन्हें समझाते रहते हैं।
आज अम्मा मान गईं । नई आसमानी साड़ी , हाथों में सोने का एक कंगन व पोती की लाई विदेशी घड़ी पहन अम्मा नई कार में परिवार के साथ घूमने जा रही हैं । मैं हाथ हिलाकर अम्मा को बाय कह रही हूँ । लगता है वही १२ वर्ष की अम्मा लौट आईं हैं। और आज पालकी की बजाय चमचमाती कार में एक नई यात्रा पर निकलीं हैं ।
घुघूती बासूती

11 comments:

  1. इस अम्मा ने भी मन के तारों को झनझना दिया -- हा ! नारी जीवन !
    " नीर भरी दुःख की बदली "
    या नीर सी बहती जिन्दगी का नीर ही नारी का असली सत्व होता है ?
    sigh ....sigh ..:-(

    अगली अम्मा से कब मिलवायेंगी ?

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  2. धन्यवाद लावण्या जी । यदि मन में बसी एक और अम्मा से शब्दों में एक बार फिर से मुलाकात कर पाई तो आपको भी अवश्य मिलवाऊँगी ।
    घुघूती बासूती

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  3. बहुत सुन्दर, बहुत रोचक और बहुत मार्मिक!
    बहुत धन्यवाद पढाने को।

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  4. घुघूती जी,मुझे मेरी नानी याद आ गयीं….…बहुत सुंदर व तरल लेखन……बहुत आभार

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  5. धन्यवाद इस मुलाकात का.

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  6. घुघूती बासूती ,अम्मा १,२,३,... का संग्रह अलग से भी हो । एक अलग 'पुस्तक ब्लॉग' के रूप में । पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो तो और अच्छा । बधाई ।

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  7. अम्मा कभी ना कभी हम सबको मिलती है अपने आस -पास ही ।वैसे बहुत ही मार्मिक चित्रण।

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  8. बहुत कुछ अपने गिर्द या अपने घर में ही देखा सुना सा, मन को छू गया वृत्तात।

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  9. टची!!

    अफ़लातून जी के कथन से सहमत हूं!!

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  10. मर्मस्पर्शी ! आँखें नम हो गई और एक अम्मा की याद ताज़ा हो गई...

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  11. अम्मा जानी पहचानी हैं!

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